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उड़नछू : पांच ट्रिलियन का अर्थशास्त्र

अजय भट्टाचार्य
आप कल्पना करें कि एक साहब के पड़ोस में एक घर है। उसमें पांच लोग रहते हैं। सबकी जेब में सौ-सौ रुपए हैं तो उनके घर में कुल ५०० रुपए हैं, जबकि साहब के घर में ५०० सदस्य हैं। सबकी जेब में एक-एक रुपया है तो आपके घर में भी कुल ५०० रुपए हैं।
जाहिर है कि साहब का हाल भिखारियों वाला है, लेकिन साहब को जश्न मनाने से नहीं रोका जा सकता। क्योंकि कुल मिलकर साहब का भी पड़ोसी के बराबर पूरे ५०० रुपल्ली वाला परिवार है।
इसी फॉर्मूले से यदि आपके घर में १२० करोड़ राशनखोर भिखारी हों, तब भी आप पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। लेकिन असली तस्वीर यह है कि आपके घर में ४९५ लोगों के पास केवल १०-१० पैसे हैं। कुल हुआ ४९ रुपया ५० पैसा…
शेष पांच लोगों ने सबकी जेब काटकर, साढ़े चार सौ रुपये जमा कर रखे हैं। तो आप इस तरह से भी पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। कहने-सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था पांच ट्रिलियन (खरब) डॉलर की तरफ बढ़ रही है। लेकिन देश की ८० करोड़ आबादी सरकार बहादुर की दयानतदारी पर मुफ्त के राशन पर जीवन यापन कर रही है और हमारे भूतो न भविष्यत अवतारी बाबा के चेले-चपाटे जिस पांच ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था का भौकाल खड़ा कर रहे हैं/किए हैं उस मजबूत (?) अर्थव्यवस्था का रुपया डॉलर के मुकाबले सबसे निचले स्तर पर है। वैसे भी चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि चाणक्य और एडम स्मिथ के बाद सबसे बड़े अर्थशास्त्री इस समय गद्दीनशीन हैं जो (ए+बी) वर्ग में २एबी अतिरिक्त निकालने की कला में दक्ष हैं। उनके ही चरण चिह्नों पर अग्रसर देश की वित्तमंत्री जीएसटी का जो फॉर्मूला विकसित कर रही है, उसका भी पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में योगदान भूलना नहीं चाहिए। विदुषी अर्थशास्त्री वित्तमंत्री का कहना है कि आपसे आपकी पुरानी कार की खरीद और बिक्री मूल्य के बीच के अंतर पर ही १८ प्रतिशत जीएसटी लिया जाएगा। इसलिए अगर आपने १० साल पहले १० लाख में अपनी कार खरीदी थी और आज उसे एक लाख में बेचने में कामयाब हो गए हैं तो आपको केवल ९ लाख के मार्जिन पर १८ प्रतिशत का भुगतान करना होगा! इस तरह आप एक लाख की बिक्री पर १,६२,००० रुपए जीएसटी चुकाते हैं। इसलिए आपको इस जीएसटी का भुगतान करने के लिए अपने कपड़े बेचने होंगे। वित्तमंत्री एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं। उन्होंने सर्दियों में लोगों के कपड़े उतारने का तरीका निकाल लिया है। हम गर्व से भरे भारतवासी इसी तरह से बन रहे हैं पांच ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था भी और मूर्ख भी। ठीक उसी तरह जैसे प्रयागराज कुंभ में ५० करोड़ लोगों के शामिल होने का भौकाल गोदी मीडिया बना रहा है और समर्थक हिंदू राष्ट्र की नाव पर सवार होकर विश्व गुरू बनने की तरफ बढ़ रहे हैं। असलियत यह है कि कुंभ में इलाहाबाद अब प्रयागराज के ही ८० प्रतिशत लोग नहाने नहीं जाते हैं। ४०, ४५, ५० करोड़ की बात सिर्फ इसलिए की जाती है, ताकि उसी के अनुरूप बजट पास किया जाए। बड़े-बड़े दावों से भरे विज्ञापन दूसरा बड़ा कारण है। असली कुंभ तो इस बजट को खर्च करने वालो का होता है। करदाताओं का क्या है? ये तो गन्ने हैं जब तक इन गन्नो में रस है निकालते रहो! ४०-५० करोड़ का मतलब हर तीसरा भारतीय हिंदू अपने घर-परिवार, दोस्त-यार, हित, नाते-रिश्तेदार के बीच सर्वेक्षण करके खुद जांच कर लें, क्या आधे कुंभ स्नान करेंगे। बस, इस फेंकने पर भी टैक्स लग जाता तो कर राजस्व आसमान पर पहुंच जाता और पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था संगम से ठीक उसी तरह प्रकट होती, जैसे समुद्र मंथन में अर्थ की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी उत्पन्न हुर्इं थीं। आसमान से पुष्प वर्षा करने वाले देव-किन्नर-गंधर्व आदि का भी गंगा स्नान हो जाता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)

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