मुख्यपृष्ठस्तंभदुनिया को तबले का दीवाना बना गए उस्ताद

दुनिया को तबले का दीवाना बना गए उस्ताद

कविता श्रीवास्तव
झूमते घुंघराले बाल, उंगलियों से निकली ताल और तबले की संगत बेमिसाल.. यही था उस्ताद की वाहवाही का कमाल। सचमुच जाकिर हुसैन साधारण कलाकार नहीं थे, वे इस शताब्दी में वे अब तक के सबसे सफल, लोकप्रिय और अद्भुत तबला वादक थे। मुंबई की सरजमीं पर आंखें खोलकर मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना पहला परफॉर्मेंस देकर ही सबको चौंका दिया था। वैसे तो वे अपने वक्त के जाने-माने उस्ताद अल्ला रख्खा के पुत्र थे। इसलिए तबला वादन की कला उन्हें विरासत में ही मिल गई थी। लेकिन उन्होंने तबले पर अपनी उंगलियों और हथेलियों की थाप से सुर-ताल-लय के जलवे दिखाने शुरू किए तो शास्त्रीय गायन ही नहीं सुगम संगीत और फिल्मी संगीत से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक उनके तबला वादन की धूम मच गई। उन्होंने करीबन छह दशक से अधिक समय तक तबला वादन पर एक छात्र राज किया। देश-विदेश के प्रतिष्ठित शास्त्रीय वादक, गायक, नर्तक और फ्यूजन संगीत बनाने वालों को उनके तबला वादन की संगत की चाहत रहती थी। वे अमेरिका शिफ्ट हो गए थे और दुनियाभर के मंचों पर तबला वादन की कला को लोकप्रियता प्रदान करने का कीर्तिमान स्थापित किया। वैसे तो तबला वादन भारत, पाकिस्तान, नेपाल और आसपास के देशों में अधिक पसंद किया जाता है। लेकिन यह उस्ताद जाकिर हुसैन का ही हुनर था कि इस वाद्य को दुनियाभर के लोगों ने सराहा, इसका इस्तेमाल किया और इसे खूब पसंद भी किया। उनकी कला का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि प्रदान की। संगीत के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित ग्रैमी अवार्ड उन्हें पांच बार मिला। कहा जाता है कि पखावज को दो टुकड़ों में विभाजित करके तबले का इजाद हुआ। लेकिन भारत की प्राचीन संस्कृति में तबला होने के अनेक प्रमाण हैं। तबला प्राचीन राजघरानों और शाही संगीत महफिलों का भी आधार बना रहा। तबला वादकों के नामी घराने भी हैं। उस्ताद अल्ला रख्खा के दौर में भी तबला वादन खूब लोकप्रिय रहा। लेकिन जाकिर हुसैन इसके वादन की कला में अनोखे प्रयोग करके नए-नए सुर-ताल और तरह-तरह के स्टेप्स की रचना करके सबको हैरत में डाल दिया। उन्होंने पश्चिमी संगीत की धुनों पर तबले की नई संगत की रंगत से तबला वादन की कला को अनूठा विस्तार दिया। लोग तबले पर जादुई ढंग से पानी की तरह फिसलती उनकी थिरकती उंगलियों से उठती ताल की तरंगों पर झूमते रहे। मुझे मुंबई की कुछ विशिष्ट संगीत महफिलों में उस्ताद जाकिर हुसैन को पंडित हरीप्रसाद चौरसिया की बांसुरी, पंडित शिवकुमार शर्मा के संतूर और अन्य के संग उनके तबले की अद्भुत संगत देखने-सुनने का सौभाग्य मिला। सितार वादक पंडित रविशंकर की उपस्थिति में भी उनके तबला वादन का जलवा मैने देखा। मैंने उनसे बात करने का सौभाग्य भी पाया। वे बहुत ही सरल व्यक्तित्व के थे। अपनी कला के बारे में बताने के लिए उत्सुक भी रहते थे। मुस्कुराते रहन की उन्हें आदत थी। मुंबई में जन्में जाकिर हुसैन ने यहीं से पढ़ाई लिखाई करके ग्रेजुएशन किया और तबले को अपने जीवन का आधार बनाकर सारी दुनिया में तहलका मचाया। आयु के 72 में वर्ष में पहुंचकर उन्होंने अमेरिका के सैंट फ्रांसिस्को में इस जहां को अंतिम विदा कहा तो शास्त्रीय संगीत और उनके साथ संगत करने वाली संगीत महफिलों में गहरी खामोशी महसूस की जा रही है। जीवन में संगीत को सदा गुंजायमान बनाए रखने वाले तबले के जादुई कलाकार पद्मविभूषण उस्ताद जाकिर हुसैन को सादर श्रद्धांजलि।

अन्य समाचार