उत्कोच

सोने चांदी की खनक कितनी मधुर है,
कागज़ के नोट बहुत भारी हैं।
देशी बैंकों की तिजोरियां छोटी पड़ गई हैं
विदेशों में सम्पत्तियां ललचा रही हैं।
बिक रहे लोग,खेल धर्म सनातन से हो रहा
प्रभु वेंकटेश का प्रसादम् अपवित्र कर रहा।
अधर्मियों के सपने पूरे हो रहे
भगवान के भक्त छले जा रहे।
अगर अब भी ना खुली आंखें देशवासियों की,
अगली दो पीढ़ियों के बाद धर्मांतरण की हो गई तैयारी।
इतिहास हमें कभी न करेगा माफ
हमेशा होगा हमारा ही उपहास,
हमें रहा नहीं अपने ऊपर विश्वास।
उत्कोच लेने-देने में लगता नहीं भय
पाप कर रहे पीढ़ियों से,हो गये निर्भय।

बेला विरदी।

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