एम.एम. सिंह
आखिरकार सोशल मीडिया पर शिकंजा कसने का सपना केंद्र सरकार का धरा का धरा रह गया। बॉम्बे हाई कोर्ट ने संशोधित सूचना प्रौद्योगिकी नियम, २०२३ को रद्द कर दिया। जिसमें केंद्र को सोशल मीडिया पर सरकार और उसके प्रतिष्ठानों के बारे में फर्जी, झूठी और भ्रामक सूचनाओं की पहचान करने के लिए ‘पैâक्ट चेक यूनिट’ (एफसीयू) स्थापित करने का अधिकार दिया गया था।
अप्रैल २०२३ में इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय ने आईटी नियम, २०२१ में संशोधन करके एफसीयू की स्थापना की। इसके बाद राजनीतिक व्यंग्यकार और स्टैंड-अप कलाकार कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और एसोसिएशन ऑफ इंडिया मैगजीन (एआईएम) ने इंटरनेट प्रâीडम फाउंडेशन के माध्यम से आईटी संशोधन नियम, २०२३ के खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उन्हें ‘मनमाना, भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला और अस्पष्ट’ कहा गया।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा होते जा रहा है, जो अभी मानने लगे हैं कि देश का मीडिया काफी हद तक एक तरफा खबरें परोसने में लगा है। दरअसल, हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान जिस तरह से लोगों का रुझान रवीश कुमार, आकाश बनर्जी, ध्रुव राठी, अजीत अंजुम जैसे सोशल मीडिया के यूट्यूबर्र्स पर अचानक बढ़ा है, जो आम जनता को प्रभावित करनेवाली सरकारी नीतियों को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, नई सरकार के कान खड़े कर दिए। हालांकि, मीडिया के मुख्य धारा के टीवी चैनलों की घटती विश्वसनीयता की वजह सरकार की चापलूसी और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म के इन जैसे यूट्यूबर्र्स की लोकप्रियता में वृद्धि हुई की वजह ईमानदार आलोचनात्मक पत्रकारिता है। बावजूद इसके सरकार ने अपना रवैया नहीं बदला। सरकार ने उनके गुणगान करनेवाले सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स पर कभी उंगली नहीं उठाई, लेकिन उनकी नीतियों पर उंगली उठानेवाले सरकार की नजरों में चुभने लगे! अस्ति और स्वतंत्र पत्रकारिता डिजिटल मीडिया स्पेस में इसलिए है सरवाइव इसलिए कर पा रही है, क्योंकि वह सरकार के सीधे नियंत्रण से बाहर काम करती है। वहीं पारंपरिक मीडिया को काफी हद तक इस तरह की छूट नहीं मिल पाती। आखिर क्या वजहे हैं? यह एक लंबी चर्चा का विषय हो सकता है।
सरकार को ऐसे नियम-कानून बनाने से बचने की कोशिश करनी चाहिए थी। होना यह चाहिए था कि सरकार लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से मीडिया को काम करने की छूट दे देती। आखिर क्या वजह है कि कई स्थापित समाचार आउटलेट्स पर ‘गोदी मीडिया’ का ठप्पा लग गया है? सरकार के प्रति चापलूसी भरे दृष्टिकोण के माध्यम से उन्होंने अपने दर्शक वर्गों को काट दिया है! अक्सर सत्तारूढ़ पार्टी की कहानी के प्रचारक के रूप में उन्होंने अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगा दी है! यदि सरकार चाहती तो वह मीडिया की स्वस्थ परंपरा को खाद-पानी देती रहती, तो आज उसे इस तरह के कानून को लाने की जरूरत नहीं पड़ती… और न ही मुंह की खानी पड़ती!