एम. एम. सिंह
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज ने यूपी और बिहार में पलायन को लेकर एक स्टडी की थी। यह स्टडी २०२० में की गई थी। रिपोर्ट बताती है कि बिहार में हर दूसरे परिवार का कोई न कोई सदस्य पलायन करता है। इनमें से तकरीबन ९० प्रतिशत लोग दूसरे राज्यों में जाकर कुशल मजदूरी का काम करते हैं। सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि राज्य छोड़कर जाने वाले इन मजदूरों की मासिक आमदनी २,००० से ढाई हजार रुपए महीने भी नहीं होती।
वही सेंटर फॉर माइग्रेशन अफेयर्स की एक स्टडी बताती है कि बिहार से तकरीबन ५५ फीसदी पुरुष पलायन इसलिए करते हैं, क्योंकि राज्य में रोजगार उपलब्ध नहीं होता। बाहर जाने वाले अधिकतर लोग असंगठित क्षेत्र के मजदूर होते हैं। बिहार में हुई जाति आधारित गणना में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि राज्य के ५३ लाख लोग अस्थाई तौर पर बिहार से बाहर जाते हैं। बाहर जाने वाले यानी पलायन करने वाले लोगों के इस बड़े आंकड़े से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनमें से काफी बड़ी संख्या में वे लोग होंगे, जो मजदूरी के लिए अपना घर छोड़ रहे होंगे।
बिहार में रोजगार के मामले में जानकारी रखने वाले अंशु झा बताते हैं कि भले ही बिहार में मजदूरी ठीक-ठाक हो सकती है, लेकिन इकोनॉमिक ग्रोथ के ठीक तरीके से न होने की वजह से और मैन्युपैâक्चरिंग सेक्टर में विकास ढंग से नहीं होने की वजह से मजदूरी के लिए लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है। हाल ही में बीते लोकसभा इलेक्शन में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अखिलेश कुमार ने पलायन को चुनावी मुद्दा बनाया था।
अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, `कोसी-सीमांचल में पलायन के कई कारण है। इनमें प्रति व्यक्ति जमीन की कमी, कम रोजगार और शिक्षा की कमी उद्योगों का अभाव आदि प्रमुख है।’ प्लेन जैसे अहम मुद्दे पर बिहार के राजनेता किस कदर गंभीर हैं, यह उनके बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा, `आजादी के बाद से इस मुद्दे को किसी नेता ने गंभीरता से भी नहीं लिया।’
बिहार के यह असंगठित, अकुशल और बेहद गरीब मजदूर अकेले ही नहीं, बल्कि अपने परिवार के साथ मौसम के हिसाब से मजदूरी के लिए देश के अलग-अलग इलाकों की तरफ निकल पड़ते हैं। इनमें से कुछ लोग छोटे-बड़े महानगरों में काम करते-करते वही बस जाते हैं और कुछ लोग मौसमी काम के खत्म होते ही अपने गांव लौट आते हैं या फिर अन्य दूसरी जगह मजदूरी के लिए निकल जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर पंजाब में जब गेहूं कटाई का सीजन होता है, तब मजदूर पंजाब की तरफ रवाना हो जाते हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि जनसेवा एक्सप्रेस, जनसाधारण एक्सप्रेस, वैशाली एक्सप्रेस, पुरबिया एक्सप्रेस, गरीब रथ, हमसफर एक्सप्रेस और सीमांचल एक्सप्रेस जैसी गाड़ियों से उसे मौसम में रोजाना ३,००० से ज्यादा मजदूर दिल्ली और पंजाब की ओर निकल जाते हैं। इसके अलावा बसों से भी मजदूर बड़ी तादाद में दिल्ली, पंजाब के अलावा अन्य राज्यों की तरफ निकल पड़ते हैं।
भले ही सूबे की सरकार इस बात को झूठलाने की कोशिश करती रहे कि यह आंकड़े जान-बूझकर बताए जा रहे हैं, लेकिन वह खुद के ही आंकड़ों को नहीं झुठला सकती। याद कीजिए कोरोना में लॉकडाउन का वह दौर जब बड़ी तादाद में मजदूर पैदल बिहार लौटे थे। उस वक्त के राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन २५ लाख मजदूर बिहार लौटे थे। उस वक्त सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन मजदूरों से वादा किया था, `आधी रोटी खाएंगे, बिहार छोड़कर नहीं जाएंगे।’ शायद यह वादा नीतीश बाबू भूल गए होंग, मजदूर कहां भूल पाएंगे लेकिन सच तो यह है बातों से पेट नहीं भरता। मजदूर पेट भरने के लिए निकल पड़ते हैं, जिसे पलायन कहते हैं।