विक्रम सिंह / सुलतानपुर
आम चुनावों में अक्सर सुलतानपुर से वीआईपी उम्मीदवार मैदान में उतरते रहे हैं। कभी तो उन्हें शानदार विजय मिलती तो कभी करारी शिकस्त। कुछ मौकों पर `शक्तिमान’ से नजर आ रहे उम्मीदवार बगैर मैदान में उतरे ही `हिट विकेट’ हो गए। सन १९९९ के आम चुनाव का रोचक किस्सा ऐसा ही है। एक वोट से केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिर गई थी और पुन: आम चुनाव हो रहे थे। भाजपा ने सुलतानपुर से (दो बार से लगातार जीत रहे) अपने सिटिंग सांसद पूर्व आईपीएस अधिकारी डीबी राय का टिकट काट दिया और दांव लगाया पार्टी के बड़े चेहरों में से एक बलरामपुर जिले के मूल निवासी सत्यदेव सिंह पर। उनके खिलाफ मैदान में थीं गांधी परिवार से ताल्लुक रखनेवाली शीला कौल की बेटी दीपा कौल। बसपा व सपा भी क्रमश: जयभद्र सिंह व रामलखन वर्मा को उतार चुकी थीं। नामांकन प्रक्रिया शुरू हुई तो भाजपा प्रत्याशी ने बाकायदा जुलूस निकाला और जोर-शोर से नामांकन का पर्चा भर दिया। अब इसे भाजपा का अति आत्मविश्वास कहें या अपनों पर प्रत्याशी का अविश्वास! उन्होंने पर्चा तो भरा लेकिन आधा-अधूरा। पार्टी के उस दौर के स्थानीय जिम्मेदार पदाधिकारी बताते हैं कि सत्यदेव सिंह ने पर्चे के साथ सिंबल नहीं दाखिल किया था। ये कहकर उन्होंने निर्वाचन अधिकारियों से मोहलत ली थी कि दो दिन के भीतर प्रत्याशी को आवंटित सिंबल का विवरण भी दाखिल कर दिया जाएगा। चूंकि सत्यदेव सिंह पार्टी के बड़े नेता थे। कई बार सांसद रह चुके थे इसलिए उनकी अपनी टीम थी। जो स्थानीय पार्टी संगठन पर कम खुद पर ज्यादा भरोसा करती थी। निर्धारित समयावधि बीत गई लेकिन भाजपा उम्मीदवार चुनाव अधिकारियों के समक्ष सिंबल पेश ही न कर सके। जो सिंबल से संबंधित कागजात संगठन ने दिए, उन्हें जमा करने को कहा था, वे अटैची में ही पड़े रह गए और भाजपा उम्मीदवार सत्यदेव सिंह का अधूरा पर्चा खारिज हो गया। हिट विकेट होकर वे स्वयं मैदान से आउट हो गए। इसके बाद डमी प्रत्याशी चंद्र भूषण मिश्र `बूटी’ को आधिकारिक उम्मीदवार बनाकर लड़ाने की कोशिश भाजपा ने की लेकिन जनता ने उन्हें सिरे से नकार दिया। बसपा और सपा ने वो चुनाव दमदारी से लड़ा। आखिरकार, बसपा का पहली बार सुल्तानपुर सीट से खाता खुला। बसपा उम्मीदवार जयभद्र सिंह ने सपा के अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी रामलखन वर्मा को करीब पंद्रह हजार वोटों से हराकर जीत का परचम लहराया। कांग्रेस की दीपा कौल महज ८२,३८५ वोटों में ही सिमट गर्इं। इस चुनाव के बाद भाजपा करीब डेढ़ दशक तक पुन: उबर न सकी। २००४ व २०१० के चुनाव भी वो दोबारा नहीं जीत सकी।