मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : सिखरन, दही व आलूदम का आनंद़

काहें बिसरा गांव : सिखरन, दही व आलूदम का आनंद़

पंकज तिवारी

ठंड इतनी थी कि बाहर निकलना दूभर था। चारों ओर बस कउड़े का ही बोलबाला था। ऊंख काट कर, मशीन से रस निकाल कर ददा बैल वापस खूंटे पर बांध दिए थे। खटकर आने के बाद रोटी खाने का जो सुख होता है उसी दौर से गुजर रहे थे दोनों बैल, बड़े ही चाव से और तेज रफ्तार से कोयर खाने पर टूटे हुए थे। दादी अगल-बगल लोटा-दुई लोटा रस बांटकर अब भोजन के तैयारी में भिड़ गई थीं। फुंकनी, र्इंधन और धुएं से जूझते हुए दादी घर, परिवार और उनके व्यवहार के बारे में सोचने लगी थीं। सुख तो दूर उल्टा खाने को लाले पड़े हैं, हाय रे परिवार! क्या ऐसा ही होता है परिवार सोचकर दादी परेशान भी हो जा रही थीं। चनरा अइया रस पाते ही इतनी तेज गति से घर की तरफ भागी थीं कि देखने वाले घंटों हंसे थे। आलू मेड़ी, दो मेड़ी जरूरत के हिसाब से खोदकर गांव के सभी घरों में आने लगी थी। खेतों से मेऽड़िया कम होने लगी थी। आलू जो अभी तक सीत-धूप को झेलते हुए खुले आकाश में जीने को मजबूर थी, अब घरों में जाने लगी थी। चनरा अइया के यहां गांव भर से ऊपर आलू हुई थी। पहले चार-छह: दिन के खोदाई में प्राप्त आलू तो गांव भर में बांटने के ही काम आ गया था। गांव में सबसे खूबसूरत यही था कि सामान कुछ भी हो, किसी का भी हो, मिल-बांटकर खाना होता था। मिलनसार बने रहने का रिवाज था। अइया के घर पर आलू गजी हुई थी। रस पाते ही सभी का दिमाग चलने लगा था। दही के साथ उसे सिखरन का रूप दिया गया था। चूल्हे पर आलू चढ़ाकर घरों में आलू दम बनाने की तैयारी चल निकली थी। सबसे बड़ा परिवार था चनरा अइया का। रोज सबेरे एक बार पहले खिचड़ी बन जाती थी‌। सयान गदेले सब खा लेते थे फिर आराम से दोपहर तक भोजन बनता था। बाकी स्कूल जानेवाले बच्चे तो दोपहर के छुट्टी में खाने पर आ ही जाते थे। आलूदम बन जाने के बाद सिखरन के साथ सभी को परसा गया। लोग बाहर धूप में इधर-उधर बैठकर सिखरन और आलू दम का आनंद ले रहे थे। बड़ा ही आनंद था। आस-पास देखने वाले भी ललच कर आलूदम बनवाने लगे थे। गांव उत्सवों का घर होता था। हर दुआरे चार-छह: जने बैठे सुख-दुख के साथी हुआ करते थे। जहां आलूदम नहीं बन सकता था वहां लाइ, चूरा से ही काम चलाना पड़ता था।। बूढ़-बुजुर्ग अकेलापन महसूस नहीं करते थे। बच्चे बड़े सब बैठकर खूब बतियाते थे। अच्छी बात तो ये थी कि छोटे बच्चे बड़ों का सम्मान भी करते थे‌। मजाल कि कोई छोटा अपने से बड़े के सिरहाने बैठ जाए‌। संस्कार पसंद लोग थे गांव में। गांव हरे-भरे पेड़-पौधों का गढ़ होता था, बखरी के भीतर भी और बाहर भी चहल-पहल होती थी। हर तरफ बात-बतकही का दौर चलता था। अब सब बदल गया है। गांव में लोग छांव को तरस गए हैं, लोग लोगों को तरस गए हैं, दरवाजों पर बड़े-बड़े ताले लटक रहे हैं। ददा को कराहे पर बैठे घंटों बीत गए थे। संझा अब रात में बदल गई थीं। बच्चे चिनगा खाने की खातिर कब से मंडरा रहे थे पर सात से आठ घंटे लगते थे रस पकने और गुड़ या खांड़ बनाने में। ददा पहला कराहा पका चुकने के बाद अब दूसरे में लगे हुए थे। पहले में तो चिनगा जमकर खाए थे बच्चे… बड़े भी। अब चारों तरफ सन्नाटा था। लोग खा-पीकर सो चुके थे। दादी ददा का भोजन कराहे के पास ही लेकर आ गई थीं। खुद कराहा में र्इंधन झोंकने लगी थीं और ददा वहीं लालटेन के आगे बैठकर खाने में भिड़ा गए थे। ‘अब केउ नाइ देखात बाऽ कि चलीऽ रचि के काकी के हाथ बंटाइ देई, अबहा जब चिनगा खाइ के होए त सब टूटि पड़िहीं, दादी ददा से बोल पड़ी। कुछ देर बीता ही था कि चिनगा की महक दूर-दूर तक पैâल गई। सोते हुए लोग, बच्चे भी उठ गए थे और धीरे-धीरे कराहा के पास आने लगे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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