पंकज तिवारी
सावन महीना मन मस्त कर देनेवाला महीना होता है। अंजोरा पांख के पंचमी के दिन गुड़ुई पीटने की बात थी तो कहीं-कहीं जरई पारने की प्रथा। इस बार भी गुड़ुई की तैयारी बड़े जोर-शोर से चल रही थी। चारों ओर गुड़ुई की ही चर्चा थी। लुगदी फाड़-फाड़ कर शिखा भी गुड़ुई बनाने में लगी हुई थी। दादी पूजा हेतु मटर की घुघुरी, धान का लावा तथा दूध के जुगाड़ में थीं। उपरी सुलगा कर उसी पर लावा भूज कर चढ़ाया जाता था। मां का ध्यान पूड़ी, कचौड़ी, साग और सेंवई बनाने पर लगा हुआ था तो ददा दुआरे खरौंचा बहोरने में व्यस्त थे। शनी अपने बाप खेलावन के साथ गाइ-गोरू को नहला रहा था। टार्च की बैटरी फोड़कर अंदर की कालिख से भैंस की सींग को काला किया जाता था। तेल लगते ही गोरू एकदम से चमक उठते थे। साल में एक बार आज ही के दिन पूरे गांव के जानवरों को देखकर ऐसा लगता था जैसे सभी पार्लर से लौट रहे हों।
गांव भर से महिलाएं आज तारा पर नाग देवता के पूजा हेतु पहुंच रही थीं, जहां महुआ के पात पर घुघुरी, लावा और दूध चढ़ाकर पूजा किया जाना था। चारों तरफ खुशी का माहौल व्याप्त था। बच्चे लतेर को काला और लाल रंग से टीका वगैरह लगाकर तारा पर रख लिए थे और गुड़ुई जो सभी की बहनें लेकर आएंगी, के इंतजार में थे। जब तक गुड़ुई नहीं आ जाती है तब तक लोग तारा में कूद-कूद कर नहा रहे थे और आनंद ले रहे थे। रमइया सनेही के कंधे पर बैठकर ऐसा कूदा कि दूर नन्हे बच्चों की टोली के पास जाकर गिरा। महेस्सर चचा जो अपने घर के सभी बच्चों को साथ लेकर आए थे और एक कोने जहां पानी कम था, में नहला रहे थे, रमइया के करामात पर भड़क गए। रमई दूसरे किनारे को भागा। सनेही डुबकी से जैसे ही सिर बाहर निकाला, माहौल गरम देखकर तुरंत ऐसा डूबा कि उस पार जा निकला। कुछ देर उधर ही अकेले नहाता रहा कि अचानक उसे पिड़ोर माटी की सुध आ गई। सनेही तारा के बीच पहुंचकर डुबकी लगाया और सिर पर ढेर सारा पिड़ोर लिए चल दिया। किनारे पहुंचते ही लूट मच गई। सभी पिड़ोर लगाकर अपने-अपने बाल धुल रहे थे और झूम-झूम के नहा रहे थे। घाम सिर पर चढ़े सभी के करामातों का मजा ले रहा था और बीच-बीच में कड़क होकर परेशान भी कर जा रहा था। अगल-बगल के पेड़ों पर बैठा पक्षियों का झुंड तेज घाम से तड़प जा रहा था, पर तारा में चल रहे उत्सव को देख उनका भी उत्साह बढ़ा हुआ था, बीच-बीच में उनमें से भी कोई आता, डुबकी लगाता और पंखों को झरझरा कर उड़ जाता था। समय बढ़ता देख गांव भर की बच्चियां एक साथ अपनी-अपनी गुड़ुई लिए तारा पर पहुंच गईं। तारा के अंदर से जोर का शोर गूंज उठा। बच्चों में गुड़ुई पीटने का उत्साह देखते बनता था। बहनें अपनी गुड़ुई तारा में फेंक देतीं और भाई लतेर से उसे पीटने में लग जाते थे और तब तक पीटते थे जब तक कि वो डूब ना जाए। शनी भी शिखा द्वारा फेंकी गई गुड़ुई को फट-फट-फट लगातार पीटता जा रहा था, जबकि कोने में खड़ी शिखा लगातार रोये जा रही थी। बड़े प्रेम से कई दिन लगकर उसने गुड़ुई को बनाया था, जिसके साथ उसका जुड़ाव हो गया था। शनी सहित और भी बच्चे लगातार आनंद ले-लेकर गुड़ुई को पीटे जा रहे थे, जबकि शिखा का रोना और भी बढ़ता जा रहा था। उसे रोता देख ददा समझाने लगे- ‘बिटिया रोते नहीं हैं। ये हमारी प्रथा है, जिसका हम सभी बस निर्वहन कर रहे हैं।’ शिखा और जोर-जोर से रोने लगी। ददा आखिर ये प्रथा बनाई किसने और क्यों? कोई इस तरीके से वैâसे मेरी गुड़ुई को पीट सकता है? आखिर क्या कुसूर है उसका बाबा? इन सभी से बेखबर कुछ लोग बाहर कबड्डी खेलने और कूड़ी कूदने में लगे हुए थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)