पंकज तिवारी
पुन्नवासी का दिन था। बहोरी बबा हर पुन्नवासी अपने घर पर श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करवाते थे। पूरा गांव इकट्ठा हो जाता था उनके यहां। इस बार भी करवा रहे थे। बड़की अइया सुबह से ही पूरी तैयारी में लगी हुई थीं। पिसान भूजकर, शक्कर और बताशा के साथ प्रसाद बनाकर केले के पत्ते से ढांप देने के बाद चरणामृत भी तैयार कर चुकी थीं। इसके बावजूद भी इधर-उधर हांफते हुए भाग-दौड़ में व्यस्त थीं। काम था कि फरियाता ही नहीं था। बेटवा और पतोहू, अइया के इस पूजा की वजह से कब के घर छोड़कर करीब दस किलोमीटर दूर एक छोटे से बाजार में छोटा सा कमरा लेकर रहने लगे थे। उन्हें ये काम हर महीने भारी लगता था। पतोहू तो कई दफा झगड़ भी लेती थी पूजा के दिन। प्रसाद के पहले जुबानी प्रसाद लोगों तक तमाशा बनकर पहुंच जाता था। बबा ही इसका बेहतर हल निकाले थे और बेटवा-पतोहू को शहर के नाम पर वहां भेज दिए थे। बेटवा-पतोहू भी खुश, बबा अउर अइया भी खुश। अब पूरा गांव ही अपना परिवार लगता था बबा को। लोग भी बबा अउर अइया को खूब मानते थे। बबा अउर अइया अब पूरी तरीके से पूजा-पाठ में ही रमे रहने लगे थे। हर महीने पूजा सिर्फ बबा के यहां ही होती थी। लोगों को पुन्नवासी का इंतजार रहता था। लोगों को अपने-अपने हिस्से का काम भी याद रहता था। कोई आम का पत्ता और टेरी का जुगाड़ कर देता, तो कोई केले का पत्ता ला देता था।
गाय के गोबर से लिपाई का काम और पिसान से गोठाई का काम मंगरा काकी सुबह ही कर गई थीं। अइया और बबा को आलता भी लगा गई थीं। अब पूरे गांव में पूजा कहने निकल पड़ी थीं। पूजा के दिन जब बबा पूजा पर बैठ जाते तो लोग बबा के गाय-गोरू का भी खयाल रख लेते थे। जियावन हर बार पूजा के बाद हवन वाला भाग सम्हाल लेते थे। पंडित जी को भी बिना कहे ही मालूम होता था कि मुझे बहोरी के यहां जाना है। सो बिना देर किए हर बार वो पहले यहीं आते थे, जबकि उन्हें पता होता था कि यहां दक्षिणा ज्यादा नहीं मिलनी है, पर भगवान भी श्रद्धा ही देखते हैं। पंडित जी भी बबा और अइया की बस श्रद्धा ही देख रहे थे। आज भी पंडित जी सवेरे-सवेरे अपनी छोटकी साइकिल से आ गए थे। बड़का झोला, कुर्ता-धोती, कान्हें पर गमछा और बंधी हुई बड़ी सी चोटी, दिव्य और भव्य चेहरा। आराम से बाहर बिछे तक्थे पर आराम फरमा रहे थे पंडित जी कि बबा की नजर पड़ गई। अरे, पंडित जी आप आ गए हैं। दौड़कर गोड़ धर लिए बबा। जल्दी से अइया को भी बुला लिए। कुछ ही देर में नींबू का रस बनकर आ गया। पंडित जी रस पीकर आराम से बैठ गए। बबा और अइया ने तैयारी और तेज कर दी थी। मंगरा काकी भी पूरे गांव वालों को पूजा का न्योता देकर वापस आ गई थीं। लोग आने भी शुरू हो गए थे कि लाठी से टेकते हुए नन्हकू पांड़े आ गए और पंडित जी को देखते ही कहे- ‘पंडित जी पालागी।’
‘खोश्श रहऽ पांड़े…खोश्श रहऽ… आवऽ बइठऽ, अउर सुनावऽ सब खैरियत बा?’
‘हां पंडित जी, सब बढ़िया बाऽ, पूजवा एक दिना हमहूं के सुनाइ देतऽ’, पांड़े बोले।
‘जब कहऽ पांड़ेऽ तब सुनाइ देब राजू…’
‘हां बताइथी जल्दियइ पंडित जी, एकाक्खे जनेउवा देइ देतऽ…!’
पांड़े हर बार पूजा सुनाने को पंडित जी को सहेजते, पर पूजा अभी तक सुन नहीं पाए हैं। पंडितजी को भी ये बात पता है, पर हर बार पंडित जी हंसकर ही जवाब देते हैं और बिल्कुल पीयर हल्दी में डूबा जनेऊ भी। पंडितजी को पता है कि हर बाप बहोरी नहीं हो सकता जो पूजा हेतु परिवार भी छोड़ने में नहीं हिचकता। पांड़े भी अपने बच्चे से ही परेशान थे, बाकी पूजा तो सुनना ही चाहते थे, पर ख्वाहिश हर बार मन में ही कहीं बिला जाती थी।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)