मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : राखी, सुरेखा और सुखई चचा

काहें बिसरा गांव : राखी, सुरेखा और सुखई चचा

पंकज तिवारी
सुबह से ही चारों तरफ खुशी का माहौल व्याप्त था। गमला चाची के गदेले राखी बांधने और बंधवाने की तैयारी में व्यस्त थे, जबकि चाची सभी के लिए मस्त-मस्त पकवान बनाने में लगी हुई थीं। उनके भैया हर साल राखी पर जरूर आते हैं। खुशी उनके भीतर भी उछाल मार रही थी। पकवान के लिए सामानों की लिस्ट चचा को एक दिन पहले ही चाची ने पकड़ा दिया गया था। चचा ठहरे खेतिहर मनई, बेचारे लिस्ट देखकर मुंह बिचुकाए तो थे, पर चाची का टेढ़ा होता चेहरा देख भविष्य को भांपकर शांत हो गए थे। रात भर आसमान में तारे गिनते-गिनते गुणा-गणित में लगे हुए थे कि दस किलो गेहूं छगनू भैया को बेच दूंगा तो काम चल जाएगा। सुकून से बस सोने ही वाले थे चचा, नींद भी लगभग आ ही गई थी कि याद आया कोठरी जहां गेहूं रखा है उसकी चाभी तो गमला के पास ही है और वो चाभी किसी भी कीमत पर नहीं देगी, गेहूं बेचने के नाम पर तो और भी नहीं। अंधेरे में भी चचा के माथे पर चिंता की लकीरें भारी और मोटी होती चली गई थी। सुबह जरूरी कामों से निपट चचा पैसे के जुगाड़ में निकल गए थे, जबकि गांव में कहावत है कि कम से कम त्योहार के दिन तो उधार नहिए मांगना चाहिए। कई दरवाजों पर बैठकर घंटों गप्प मारने के बाद मौका ताड़ कर चचा जब पैसे की बात करते तो हाथ निराशा ही लगती। सुबह से सातवें द्वार पर आ गए थे चचा। निरंजन के यहां से भी निराश होकर चचा घर की तरफ मुड़ गए थे कि वहीं चन्नी पर बैठी रोआंसा मुंह लिए सुरेखा दिख गई। ‘का भवा रे, काहें तैं रोवथए’- चचा कहेन। ‘हमरे भैया एसंऊ फेरि नाइ आवथयेन राखी कए, अब हम केका राखी बान्हीं।’ ‘धत्त पागल नाहीं तऽ इंहीं बिना रोवथए। लें बांध राखी, आज से हमहू तोर भैया भये, लेइ आउ राखी अउर बान्हु जल्दी से। पगला नाहीं तऽ रोवथइन।’ सुरेखा खुशी से उछल पड़ी। अपने आंसू पोंछते हुए दौड़कर सारा सामान ले आई और खुशी-खुशी राखी बांधने लगी। उसकी खुशी देखकर चचा की आंखों में नमी आ गई। मोती जैसे दो बूंद उनके गालों से होते हुए सुरेखा के हाथ पर आ गिरे। सुरेखा खुद भी रोने लगी। नेह की बारिश हुई। चचा खूब सारा आशीर्वाद देकर अपने घर की ओर चल पड़े कि पैसे को याद कर निराश हो उठे। घर पहुंचते ही गमला चाची बरस पड़ी। कब से हम जोहथई… तोहार समानइ नाइ आइ, काउ बनई? का आपन हाथ-गोड़ बनई? आज राखी हउ, हमार भैया बस पहुंचतइ होइहैं, काउ खियाउब ओनका? एक त सबेरेन क गऽ… गऽ… अबहीं कर्इं आवथयऽ… उप्पर से खाली हांथे। चाची उधिराइ पड़ी हइन। गदेले बुत्त खड़े सब देख रहे हैं, पर कुछ भी बोल नहीं सके हैं, जबकि चचा जैसे कुछ सुन ही नहीं रहे हैं, बिल्कुल ही शांत हुए घर के भीतर चले गए। ‘का करें जुगाड़ में लगे तो रहे जब कहीं से पइसा ही नहीं मिला तो समान वैâसे लाएं?’ चाची और भड़क गर्इं। चचा की बातों का जैसे मतलब ही नहीं समझ आ रहा। उन्हें अपना भाई और उनके आने के बाद होनेवाली बेइज्जती ही दिखाई पड़ रही थी। तड़कना-भड़कना जारी ही था कि दौड़ते हुए सुरेखा आ गई। भैया… सुखई… भैया…? कहां बाटऽ? हां… हां… आइ गएऽ… शोर-शराबे के बीच सुरेखा की आवाज पहचान कर चचा बोले और झट से बाहर आ गए। पीछे-पीछे चाची भी आ गई और आंखें बड़ी-बड़ी कर दोनों को निहारने लगी। ‘का भऽ रे…?’
‘ई लेंइ भैया हम मजे कऽ पइसा अपने गल्ला में धरे रहे हऽ, गल्ला फोड़ि के कुलि उठाइ लियाइ हई… देखऽ… तोहार काम शायद एतने से चलि जाए…।’
‘धत् पागल हम तोंसी पइसा कब मांगे हऽ रे… उल्टा हमार पद रहाऽ तोहैं पइसा देइके, जवन उधार रहे अबइ।’
‘जब तूं निरंजन से बतियात रहऽ हम तबइ सुनि लिहे रहे। अब बहाना जिनि बनवऽ… लऽ अउर त्योहारे कऽ काम चलावऽ। जब होए तऽ हमार वापिस कइ दिहऽ’- एक ही सांस में लगातार सुरेखा बोले जा रही थी, जबकि चचा बस उसका मुंह निहारते रहे। नमीं चाची के आंखों भी उतर आई।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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