पंकज तिवारी
सितंबर अब अक्टूबर की तरफ लुढ़कने लगा था। बारिश छिटपुट और कभी-कभार वाली स्थिति तक पहुंच गई थी। सबेरे-सबेरे घासों पर ओस की चमकती बूंदें नजर आने लगी थीं। सूर्य की रोशनी में ओस के चमक की खनक देखने वालों की जेहन में पसर जाती थी। ठंड बोरिया-बिस्तर लिए गर्मी की छुट्टी बिताकर वापस आने की तैयारी में लग गई थी या कह सकते हैं कुछ-कुछ आ भी चुकी थी। मच्छरदानी लगाकर घर के बाहर पैâले दुआर पर सोने वाले लोग अब चादर ओढ़ने लगे थे। सेहलावन लगने लगा था। बारिश वाले कीड़े-मकोड़े, जानवर अब भ्रमित होने लगे थे, समझ ही नहीं आ रहा था कि अब हमारा काम क्या है? हम रहें या चले जाएं वाली स्थिति से गुजर रहे थे ये सभी। रात में डरावनी आवाजें बढ़ रही हैं या कम हो रही हैं कह पाना मुश्किल था। झूलन ददा बदलते मौसम को लेकर बहुत ही सचेत रहा करते थे। गांव का मेला आए इससे पहले ही वह मौसम को भांप जाते थे। मौसम ददा के मिजाज को बिगाड़े इसके पहले ददा ही अपने रहन-सहन को बदल लिया करते थे। ‘का बरखा जब कृषि सुखानी’ वाली बातों से भली-भांति वाकिफ थे ददा। रात में डरते भी खूब थे। रात में पाग्गुर मलते हुए गाय, भैंस जब अपनी सींगों से खूंटों पर ठक-ठक मारते थे, ददा उठकर बैठ जाते थे और घंटों एकटक मोहार को ही निहारते रहा करते थे, पर लाज के मारे दादी को भी नहीं बता पाते थे कि मुझे डर लग रहा है। अपनी खटिया अब ओसारे में लगवाने लगे थे ददा। दिन भर बाहर नीम और जामुन के बीच बिता देते थे पर शाम होते ही खटिया अंदर करवाने हेतु परेशान हो जाते थे ददा। कभी मंगरू और जियावन तो कभी चैतू चचा को बुलाकर खटिया भितरवा तो लेते थे पर कभी-कभी समस्या आ ही धमकती थी और खटिया को खुद ही भीतर करना पड़ता था दादी और ददा को। दादी एकदम से कमजोर हो गई थी पर क्या करे, बुढ़ाई दैंया भी झाड़ू-पोंछा, बासन-पानी सब कुछ करना ही पड़ता था। परिवार का सुख कभी नहीं मिला दोनों को। गदेला पढ़ाने के नाम पर बेटवा, पतोहू गांव-गिरांव को तजकर शहर चले गए थे और वहां ऐसे फंसे कि अब आ ही नहीं पा रहे हैं और ददा, दादी हैं कि वहां जाने को भी राजी नहीं। ‘मैं यहां तुम वहां जिंदगी है कहां’ वाली बात चरितार्थ होती नजर आ रही थी पर घिसट-घिसट कर ही सही जिंदगी चल रही थी। लोगों की नजर में ददा का लड़का खूब कमाता था, शहर वाला घर अकेला उनका ही था पर शहर का दर्द क्या होता है ददा और दादी ही समझ सकते थे। कभी-कभी तो भूखे ही सो जाना पड़ता था। ठंडी आने से पहले ही दादी की धड़कनें बढ़ जाती थीं, पता नहीं इस शीत को बिता पाऊंगी भी या नहीं? पर ददा के साथ ने दादी को कभी भी डिगने नहीं दिया। ददा करवइया खूब थे। काम से हिचकते नहीं थे। पलरा भर-भर के गोबर खाद खेत में पहुंचा आते थे। आलू अकेले ही लगा डालने का दमखम रखते थे पर दोनों एक-दूसरे के साथ से खड़े थे। मोबाइल तब नहीं होता था। तार के इंतजार में साल गुजर जाता था। तार तो तब आता है जब लिखने वाले के पास समय होता है, लोग कहा करते थे कि मुंबई वालों के पास समय कहां होता है। खैर, समय तो ददा के पास भी नहीं था।
साग-सब्जी कुछ भी खरीदने की आवश्यकता नहीं होती थी। ददा सब दरवाजे पर ही बो दिए थे। वहीं अपने ही खेत में गोरू भी चराते और खेत की रखवारी भी करते, लोगों के साथ बैठकर गप्पे भी लड़ा लिया करते थे ददा। यही सब तो था जिसके भरोसे झूलन ददा चुस्त, दुरुस्त और मस्त थे, वर्ना कब के निपट लिए होते पर अकेले होकर भी अकेले नहीं होते थे ददा। पेड़-पौधों, पत्तों से भी बतियाया करते थे ददा। छान्ही पर नेनुआ, लौकी, कोंहड़ा की भरमार थी। गांव वाले भी मांगकर ले जाते थे और छक कर खाते थे। ददा कभी किसी को भी नहीं रोकते थे। ददा के लिए पूरा गांव ही परिवार था।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)