पंकज तिवारी
अतुल ने जैसे ही कहा बुआ आप ही चली जाना सूप पीटने, मैं नहीं जाऊंगा। हां, सुनते ही बुआ खुशी से उछल पड़ी थी। लालटेन के जुगुर-जुगुर रोशनी में भी उनके चेहरे की खुशी को अनुभव किया जा सकता था। अतुल, ददा आदि लोग मुस्कुराते हुए फिर से सोने चले गए थे, जबकि माई-बिटिया अब बै’कर बतियाने लगी थीं। सुख-दुख, मायका-ससुराल, बचपना-बड़पना सब कुछ याद किया जाने लगा था। माई अपने घर-दुआर, बियाह-बिदाई की बात पर आ गई थी। ‘बियाहे के बाद सबेरे तोरे बाबू कऽ पूरी बरात पांत लगाइके खिचड़ी खाइ बइ’िन रही कि गांवइ से केउ पिंगल बोल दिहे रहा। तोर बाबू एस भड़केन कि मनाएउ से नाइ मानेन, बरतियन के साथे पैदलइ चल दिहेन हमार दुआर छोड़ि के। बाबू, माई, गांव भरे क कुल बड़-बुजुर्ग खोब समझावइ के जुगुति किहेन मुला तोर बाबू केहु क नाइ सुनेन, शुरुअइ से बड़ा जरतुहा रहेन रेऽ। हम राति भर रोए रहे। खैर, बाद में कुलि सही होइ गवा। आउब-जाब होइ गवा।’ दादी अपनी बात बताते हुए रोने लगी थी। ‘बिटिया ससुराल ससुरालइ होथऽ ओकर जगह नइहर कभंउ नऽ लेइ पाए, अब कइसउ करिहीं, कतंउ से करिहीं मुला हमइ बिदा कुलि तोहार बबुअइ करिहीं नऽ। हर सुखे में, दुखे में साथे ओइ खड़ा होइहीं नऽ। हमार समस्या ओन्हइ त ओनकर समस्या हमइ सुनइ के पड़े अउर समझि के एक-दुसरे के साथे रहइ के पड़े हो बिटिया। ई रिश्ता निभाउब एतना असान नाइ होत रानी मुला एसी असान कवनउ रिश्ता होबउ नाइ करत अगर समझइ वाले लोग रहंइ।’ माई लगातार बुआ को समझाए जा रही थी और बुआ धीरे-धीरे माई के गोद के तरफ खिसकते जा रही थीं, कुछ ही देर में माई के गोद में सिर धर कर बुआ सिसकने लगी थीं। ‘बिटिया कुलि दुख आज अपने आंखि से बहि जाइ दऽ, एकदम पवित्र होइ जाइ दऽ अपने मन के, अपने सास-ससुर अउर हमरे दमादे के लेइ के जेतना भी जहर तोरे मने में भरा बा कुलीऽ के आज बहि जाइ दऽ।’ बुआ को शांत करा के माई अब उ’ने ही वाली थी कि बाहर से सूप पीटने की आवाज आने लगी। भोर के चार बज गए थे। बुआ भी झट से उ’ी और दाहिने हाथ से दोनों आंखों को पोंछते हुए सूप की तरफ बढ़ गई। सभी दरवाजों के सामने सूप पीटने के बाद अब बाहर चली गई हैं। ददा और अतुल सकपकाए पर नींद से जाग नहीं सके। दलान, गोरुआर में भी सूप पीटकर अब बुआ घर से दक्षिण की तरफ बढ़ गई हैं जिधर और भी लोग जा रहे थे। आगे आते ही कई लोग मिल गए थे। गांव के बाहर पुलिया के पास पहले से ही पहुंचे हुए लोग पीटे गए सूप को जला रहे थे। बुआ भी वहां पहुंचते ही सूप आग में डाल कर पीछे हट गई थीं। सभी का इंतजार करने के बाद अब लोग वापस आने लगे थे कि मितई को गन्ने की सुध हो आई। चलते-चलते बगल में ही भुंइधर के खेत से एक गन्ना तोड़ लिया मितई ने। बुआ भी तोड़ने के लिए लपक पड़ीं। देखते ही देखते अम्मा, चाची, भैया, बचवा सभी टूट पड़े गन्ने पर और एक-एक गन्ना लिए आराम से वापस आग के पास ही पहुंच कर लोग गन्ने के चुहाई में मगन हो गए थे। सबेरे भुंइधर घर-घर जाकर शिकायत कर रहे थे, पर गांव में ऐसे शिकायत की सुनवाई कहां होती है लोग सुनकर उल्टा भुंइधर से ही मजा लेने लगते थे। ‘खाइ वाले चीजन पे के रोक लगाइ पाए हो बबा, भुलई बोल पड़े थे। जादा दिक्कत होइ तऽ चल हमरे खेते से काटि लऽ बोझ भरि ऊंखि। बेचारू भुंइधर शरमाकर अपने घर चले गए। बुआ सबेरे ही फूफा को चिट्ठी लिखवार्इं कि ‘मुंबई से जल्दी आवऽ अउर हमइ इंहां से लियाइ चलऽ।’ ‘बुआ अब अपने ससुरे में जाइके आपन गिरस्थी सम्हालऽ, बात-बात पे रिसियाब ‘ीक नाइ होत, अउर फेरि का तूं गदेला लागि हऊ।’ अतुल की बात सुन बुआ बस मुस्कुरा भर दी थीं और हां में सिर हिला दी थीं।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)