मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : ददा का दर्द और वैद्य बनवारी लाल

काहें बिसरा गांव : ददा का दर्द और वैद्य बनवारी लाल

पंकज तिवारी

ददा झटके से मेड़ पर गिर पड़े थे, पर सभी को दिखाने के लिए कि मैं बिल्कुल ठीक हूं, एक ही झटके में उठ भी गए, पर हाय रे दर्द! कराहते हुए तुरंत जमीन पर बैठ गए ददा। घूम उठा माथा और नाच पड़ा आसमान। ददा गश खा गए। दर्द पैर से होते हुए दिमाग तक सन्न से पहुंच गया था। जोर से बार-बार कराह उठ रहे थे ददा। कराह में आवाज धीरे-धीरे कम होती चली गई थी। ददा अगल-बगल मदद के इंतजार में ताक रहे थे। फुग्गन, ददा को गिरते हुए देख लिया था और झटके में तेज आवाज करते हुए उठाने के लिए दौड़ पड़ा था। आवाज सुनकर और भी लोग दौड़ पड़े। खबर-खबर अखबार हो गया। बात गांव-गांव होते कई गांव तक पहुंच गई थी। भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो गई। लोगों को भागकर आते देख कका और काकी जो अभी तक बीयड़ उखाड़ते हुए कजरी गाए जा रहे थे, के अचानक से कान खड़े हो गए। ‘का भवा रे कल्लुआ’ भागते हुए कल्लू को देख कका पूछ बैठे। ‘अरे चचा तोंहइ नाइ पता, तोहरे बाबू गिरि गऽ हयेन मेड़वा पेऽ उठिन नाइ पावथयेन। का…? कका बौखलाहट से भर गए और कलुआ के साथ उधर ही भागने लगे। हांफती हुई काकी भी पीछे-पीछे भागती रही। तुरंत ही ददा के पास पहुंच गए कका। अब तक बहुत भीड़ बढ़ चुकी थी। ददा को खटिया पर लिटाया जा चुका था। उधर बर्धा अब भी बीयड़ चबाए जा रहा था कि ददा को देखने पीछे से भगे आ रहे भोलाराम ने भगाया। बीयड़ अब बच गई थी। कका और काकी ददा को देखते ही परेशान हो उठे। ददा दर्द से कराह रहे थे उधर रेडियो का भी अंग, भंग हो चुका था। ददा की खटिया को उठाकर लोग घर तक ले आए। गांव में अभी भी इंसानियत जिंदा थी। मुसीबत के समय लोग एक-दूसरे का खयाल रखते थे। पूरा गांव अपना परिवार बन जाता था। काकी तेल गर्म करने दौड़ी। कका बैद्य बनवारी को बुलाने दौड़ पड़े तो गांव के और लोग भी कोई सिर के पास का तकिया सही कर रहा है तो कोई पांव पर मालिश कर रहा है। लोग अपने-अपने हिसाब से ददा के दर्द को कम करवाने के प्रयास में लगे हुए थे कि दर्द से परेशान ददा को बीयड़ और खेत में काम कर रहे आदमियों की याद हो आई, अपने रेडियो की याद हो आई। ‘कइसे लगे मोर धनवा रे भइया, मनई के बीयड़ उखाड़ि के के देये हो राम, अरे भइया मोर बजवा कहां बा रेऽ’ कि अचानक से ददा को बीयड़ खाते बर्धे की भी याद हो आई। वैद्य को बुलाने गए कका से बेखबर ददा कका को ही चिल्लाने लगे- ‘बचइयाऽ… हेऽ बचइया… कहां बाटे रे बचइयाऽ, देख दउड़, कुल बियड़िया खाइ जाए रे बर्धवा।’
‘अरे ददा चुप रहतऽ राजू, पहिले आपन जिउ नाइ देखइ के, बियड़ियाऽ… बियड़ियाऽ… चेल्लाए जाथयऽ। जात कि अपने टिक्ठिया पर गठियाए जायऽ आपन बियड़ियाऽ…। हम भगाइ दिहे हई बर्धवा के तोहरे खेते में से’- घुरमुसाहट से भरे भोलाराम ने गुस्साते हुए कहा। कुछ लोग ददा के इस करामात पर हंस पड़े तो कुछ बाकी लोगों को शांत कराने लगे। ‘हे चुप रहज्जा यार, अइसन नाइ बोलइ के, देखत नाइ हयऽ ओनके चोट लगी बाऽ, परेशान हयेन बेचारू अउर तू सभे हयऽ कि मजा लेथयऽ’, जियावन बोल उठे। लोग शांत हो गए। ददा की निगाहें इधर-उधर घूमकर कका को ही ढूंढ रही थीं, पर कका अभी वैद्य को लिए आ नहीं पाए थे। लोग टोटका बताने लगे थे। कोई कहता हल्दी-प्याज लगाओ तो कोई कुछ, कोई कुछ कहता रहा कि कका वैद्य को लिए आ गए। भीड़ पीछे हो गई। वैद्य को जगह दिया गया। कका के बगल वाली खटिया पर भारी-भरकम शरीर वाले वैद्य बनवारी लाल धम्म से बैठ गए। खटिया बीच से जमीन छूते-छूते बची। कका उनके बैग को खटिया पर रख दिए और वैद्य चचा अब उसमें से धीरे-धीरे करके सामान निकालने लगे। ददा के चोट वाली जगह पर काफी जांच-पड़ताल के बाद पता लगा कि पांव टूटा नहीं है, बस मोच है।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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