पंकज तिवारी
भिनसार होते ही मुरैला, गिलहरी, कौवा, कुक्कुर के साथ ही आदमियों की चहलकदमी भी चालू हो गई थी, जबकि झुरझुरी हवा तन और मन को अलसाई मुद्रा में झोंकने हेतु अमादा जान पड़ रही थी। खटिया बाहर लगाकर सोने वालों में रात भर मच्छर से कटवा चुकने के बाद भोर में बढ़िया नींद लेने वालों में से अधिकतर को तो मजबूरी में ही सही पर उठना पड़ गया था। सुखई को कब से काकी उठा रही थी भैंस लगाने के लिए पर वो हेंगर बने लगातार बात को टाले जा रहा था। रोज-रोज भैंस लगाना उसे भारी लगता था, जबकि काकी अंदर ही अंदर कलकला के रह जाती थी। सुखई के इसी करामात की वजह से कई-कई दिन तो भैंस कूद जाती और लगती ही नहीं थी। कई बार तो वो जान के कुदवा देता था कि हमें न लगाना पड़े पर ऐसा कभी नहीं हुआ, कोई विकल्प ही नहीं था। बेचारी पड़िया के लिए अलग से दूध का जुगाड़ करना पड़ता था। दुआर से लेकर सेंवार तक पूरा खेत ही खेत देखकर मन मगन हो अनंत की यात्रा पर निकल जाने को आतुर हो उठता था। केवला, कमला, चनरी, सुघरा सब इनारा के चबूतरा के पास बैठकर बासन मांज रही थीं। भोर की नींद किसको पसंद नहीं है इन सभी को भी थी, भोरे-भोरे बिस्तर छोड़कर उठना तो ये सब भी नहीं चाहती थीं पर लाज, शरम नाम की चीज भी थी तब, इसी वजह से उठ गई थीं। बासन मांजे जा रही थीं और बकर-बकर भी किए जा रही थीं, अपना पुराना किस्सा सुनाने में कोई मस्त है तो कोई सास, ननद और जेठानी की बुराई बताने में। केवला सबसे चालाक बनी बस सुनती थी सभी को और मजा लेती थी, जबकि चनरा को रोक पाना ही भारी होता था। किसी की भैंस दुबे के खेत में कूद गई थी, तो किसी को अइया के खेत में कीरा दउड़ा लिया था, कोई फुहरा के दिए गारी को ही बार-बार गाये जा रही थी तो कोई मटर के खेत में गायब खुरपी की बात को ही नमक-मिर्च लगाकर परोस रही थी। इनरा घर के मेहरारुन खातिर चौपाल का बढ़िया अड्डा बन गया था। जामुन के छांह में सुबह से दोपहर और कब रात हो जाती थी किसी को पता ही नहीं चलता था। कका दूर घूर के पास बैठे सब कुछ देख रहे थे आधे घंटे के काम में घंटों लगाने वालों पर बरसना भी चाह रहे थे, पर परेशान थे कि मेरी तो कोई सुनेगा ही नहीं। चिल्लाकर बस अपना ही मुंह खराब करना होगा। पता है फिर भी बिना बोले उनसे भी नहीं रहा गया और चिल्ला ही दिए। ‘का रे तोन्हन कबसे कबड़-कबड़ करथए, बसनवा मांजि के जल्दी देइ देते त कुछु कामउ आगे बढ़त, तोन्हनउ पता नाइ कहां से लियावथे एतना बात बकर-बकर करइ बिना।’
‘चुप्पइ रह्य बुढ़ऊ बहुत बोल्य त जिनि, हम सब जवन करथई करइ दऽ, ओहर सोवत त हयेन सबेरेन से ओन्हइ त नाइ जगाइ पावत हय। आइ हय हमहिन सब के चेल्लाइ’, सुखई की तरफ इशारा करते हुए चनरा बोले जा रही थी। ‘कुल झार मगरइलइ पे उतारइ में सब के मजा आवथयऽ, भंइसि नाइ लागत बा ओहर नाइ देखात बा’, बोलकर खूब जोर से हंस पड़ी चनरा।
कका को कुछ ऊंचा सुनाई पड़ता था इसीलिए का कहे…? का कहे…? कह के शांत हो गए, जबकि समझ तो रहे थे कि ई सब कुछ तो मजा ले रही हैं हमारा, पर क्या करें बुढ़ौती में बच्चों से इतना कौन भिड़े? कका अब वहीं नीम के नीचे दाना बीनती चिड़िया को देखने लगे और अपने पुराने दिनों में खो से गए जब अपने बबा के खटिया के नीचे नकली कीरा फेंक कर डराए थे और बबा कूद पड़े थे अपने खटिया से। गांव के ही चोंहर वैद्य को बुलाया गया था। पैर में बांस की फट्टी बांधकर महीनों रहना पड़ा था बबा को। आज कका को लग गया था कि हमें अपने बुजुर्गों का सम्मान करना ही चाहिए।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)