मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : सपनों में झूलती जगदेई

काहें बिसरा गांव : सपनों में झूलती जगदेई

पंकज तिवारी

सावन का झूला लोग झूल ही रहे थे, आनंद ले रहे थे और एक से बढ़कर एक गीत गाए जा रहे थे। लोकगीतों के मामले में गांव समृद्ध है और समृद्ध हैं गाने वाले लोग भी। एक ही पंक्ति में एक ही पटीदारी में चार-पांच झूले पड़े हुए थे। सभी पर चार से पांच लोग बैठे हुए थे। गाने की होड़ सी लगी थी। एक झूले का गीत संपन्न हुआ नहीं कि दूसरे झूले से राग टेर दिया जाता था। रात भर मेंढक, झींगुर, गाय-गोरू इन सबों का अलाप सुनने को मिलता था, लेकिन आज की रात गीतों का दौर जारी था और रोज अपना राग छेड़कर सभी को परेशान करनेवाले आज बिल्कुल ही शांत हो झूले पर झूलते लोगों को देख और उनके गाने को ध्यान से सुन रहे थे। आस-पास से देखने वालों की भीड़ टूटी हुई थी कि तभी टूट गई झूले की रस्सी। तेज आंधी में बदर-बदर जैसे आम गिरता है गिर गई थीं मंजू, शोभा, सरिता। रेनू और चाची कल्लन अभी भी रस्सी पकड़े लटकी हुई थीं कि बीस किलो की चाची उठती चली गईं, जबकि रेनू की मोटाई हाय-तौबा थी। वो नीचे सरकती जा रही थी और तब तक खिसकती रही जब तक कि जमीन पर धप्प से बैठ नहीं गई। बेचारी चाची लटकते हुए डाल के पास पहुंच गई थीं। लोग चिल्लाए जा रहे थे। कोई कह रहा था कि डाल पकड़ लो, रस्सी छोड़ दो, तो कोई कुछ, कोई कुछ कहता रहा कि गिरते ही रेनू के हाथ से रस्सी छूट गई… सर्रर्रऽऽऽ… चाची भी धड़ाम से नीचे आ गिरीं। बारिश की वजह से जमीन तो पहले से ही गीली थी, चोट सभी को कम ही लगना था पर सभी को अपने-अपने हिस्से की चोट लगी। जगदेई जिसका अभी-अभी गौना हुआ था और जो गीत सुनकर भागते हुए ओसारे में आ खड़ी हुई थी, जो झूलना भी चाहती थी, पर मंसेधू मतई के कहे शब्द कि अभी-अभी तो तुम आई हो, अभी बाहर वैâसे जा सकती हो, क्या कहेंगे गांव-जवार वाले सब, उसके कानों में गूंज गए थे और वो झूलना चाहकर भी चार कदम पीछे हो गई थी, पर कनवा घुंघुट काढ़े आसमान छूते झूलों को बड़े ही अरमानों के साथ देख रही थी कि ये घटना घट गई। सभी लोग जो वहां खड़े थे बस अकिल ही बता रहे थे, पर करना क्या है किसी को सुध नहीं थी कि चाची की कराह जगदेई के कानों तक आ पहुंची। जगदेई जो लाज के मारे कनवा घुंघुट के सहारे बाहर देखने को मजबूर थी को अचानक अपनी लाज-शरम सब उठाकर फेंकना पड़ा और दौड़ जाना पड़ा घायलों के पास। जगदेई सबसे पहले चाची को उठाकर बाहर ही बिछी खटिया पर ले गई और भागते हुए भीतर से दूसरी खटिया लेकर आ गई कि वहां खड़े और भी लोगों के दिमाग चलने लगे कोई और भी खटिया बाहर निकाल रहा है तो कोई जगदेई के साथ घायलों की मदद कर रहा है। हड्डी-वड्डी किसी की नहीं टूटी थी। बस रेनू जो हद से ज्यादा मोटी थी और शायद झूला टूटने की वजह भी वही थी, को कुछ ज्यादा चोट लगी थी, लेकिन सभी को देखकर उसे हंसी आने लगी थी और वो जोर से हंस पड़ी। उसे देखकर बाकी सबको भी हंसी आने लगी थी। अचानक से दर्द-वर्द को भूल हंसी का दौर ही चालू हो गया कि अइया धीरे से टेर दी- झूला गिरा, कदम कै डारि मटक कै झूमै लागी ना…। कजरी, चैता का दौर पुन: प्रारंभ हो गया। कीचड़ में सने झूले से गिरे लोग भी अब गाने लगी थीं कि अइया ने जगदेई को देखते हुए कहा, ‘रे दुलहिनियां जे तहूं झूल एकए वाले झुलुनवा पर।’ जगदेई को अपने पति की कही बात याद आ गई। ‘ओ डटिहीं अइया।’ चुप्प! डटिहीं हम बाटी नऽ, हाथ-गोड़ तोड़ि देब ओनकर मारिके। चल तैं झूल। अब जगदेई अकेले ही एक झूले पर झूल रही है और झूल रही है अपने ही सपनों में।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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