मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : फुआ का दुख और शहर में सनेही

काहें बिसरा गांव : फुआ का दुख और शहर में सनेही

पंकज तिवारी

गांव के लोग शहर की ओर रुख करना शुरू ही किए थे कि फूफा भी चले गए थे। बहुत बड़े आदमी हो गए हैं, पूरे गांव में हल्ला था पर वर्षों गुजर गए थे, फूफा को गांव आए। फूआ लाख जतन कर, थक-हारकर महीनों पहले नैहर आ गईं थीं। आज-कल करते महीनों गुजर गए पर फूआ वापस नहीं जा पा रहीं थीं। बच्चे थे नहीं। सास-ससुर ठहरे सीधे, खुद ही बना खा ले रहे थे, पर फूआ को वापस आने को परेशान नहीं कर रहे थे। जब अपना ही लायक नहीं है तो फिर गैरों पर वैâसा जोर, हर बार यही कहकर मन को दिलासा दे रहे थे दोनों लोग। इधर नैहर में भी ़फूआ के सम्मान में कोई कमी नहीं थी, पर ससुराल ससुराल ही होता है। फूआ के होने से घर में चहल-पहल हमेशा बनी रहती थी। बच्चे मस्त मगन हो फूआ के साथ खूब खेलते थे। फूआ गांव और बाहर भी खूब घुमाती थीं बच्चों को। कभी-कभी तो मेला भी घुमा लाती। कभी जब खेलते-खेलते बच्चा न होने का गम फूआ को सालने लगता तो किसी कोने में जाकर सुबक लिया करती थीं, पर अपना दुख जाहिर नहीं होने दिया करती थीं।
इतवार का दिन था, फूआ सबेरे-सबेरे ही महुआ बीन कर आ गई थीं। तबियत आज कुछ ठीक नहीं लग रही थी। दरवाजे में पड़े खटोले पर ही लेट गईं, नींद आ गई। शादी, शादी से पहले और बाद की बातें सपने में तैरने लगीं। फूआ लगातार सपने में विचरती रहीं और सोती रहीं। नींद खुली तो शाम के पांच गए थे। देखीं तो बगल में भौजी बैठीं मुस्कुरा रही थीं। `ननदो खूब सोई हो आज, मन एक, दुई बार जगावइ के किहिस पर बहुत दिन बाद हम अपने ननदो के एतने बढ़िया से सोवत देखे तऽ परेशान नाहीं करैके मन किहिस। चलऽ अब हाथ मोह धोइलऽ खाना लियावथई। अबई हमहूं नाई खाय हईं’।
का? बड़ी सी आंखें कर फूआ भौजाई को देखने लगीं और झटके से गले लगा लीं। अरे हमार भौजी। आंखें दोनों की भीज गईं। झुरझुरी हवा आंखों के पास से होकर गुजर रही थी।
`बबा आइ गयेन’ चिल्लाते हुए मगन फूआ से बोला- `फूआ तोहरे बुढ़ऊ आइ हयेन’।
फूआ झट से झांकने के लिए दौड़ीं पर तुरंत ही पीछे हो गईं। भौजी मीठा पानी का जुगाड़ कर मगन को पकड़ा दीं। मगन गुड़ और पानी लिए बबा के पास पहुंच गया। खूब खातिरदारी होने लगी। बाकी दूनउ गदेले बबा का पैर दबाने लगे। बच्चे, बुजुर्ग सभी बबा के पास बैठे हाल-चाल लेते रहे। रात हो गई।
`बबा खाना लग गवा बा, चलइं खाइ लेईं’- मगन बोला।
बबा हाथ-पैर धुलकर खाने पर बैठ गए। सब्जी, पूड़ी, अचार, दूध आदि देखकर बबा मन ही मन मगन हो खाने पर टूट पड़े। बूढ़ा बहुत दिनों से ऐसा खाना नहीं बनाई थीं।
मगन.. पूड़ी लियावऽ बेटवा..
मगन दौड़ा-दौड़ा गया पर पूड़ी के जगह कचौड़ी ले आया और थारी में धर दिया।
बेटवा हम मांगत पूड़ी हई अउर तूं देत कचौड़ी हयऽ.. का बात बाऽ हो? बा नाई का रसोंइयवा में।
मगन फिर गया पूड़ी लाने पर बहुत देर हो गई निकला ही नहीं।
बबा गुस्सा कर बस उठने वाले ही थे कि ़फूआ खूब सारी पूड़ी लिए बाहर निकलीं और धर दीं थारी में।
इंहा कचौड़ी सब खाथेन बाबू इन्हीं से गड़बड़ाई गवा, अबहीं कि फेरि से काढ़िन हंऽ भउजी।
हे पतोहू हम गोस्सात् नाइ हईं, हम तऽ बस मगनवा से मजा लेत रहे बाकि कचौड़िया तऽ हमहूं खोब् खाइथऽ।
फूआ घूंघट के नीचे से ही हंस पड़ीं।
हे पतोहू अब तूं चलऽ घरे, अपने घरे, ससुरे अपने। सनेहिया कालइ बंबई से आई गऽ बा। अब तक तोंहका चिट्ठी नाई लिखिसि, बंबई बोलावई के परयास नाइ किहिस अपने एंहनइ गलती पेऽ ऊ बहुत शर्मिन्दा बा बिटिया।
फूआ के कान जैसे तृप्त हो गए, खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
हम् चलब् बाबूऽ…। जरूर चलब्।
(लेखक ‘बखार कला’ पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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