पंकज तिवारी
‘जलेबी जइसन सीधी बा रे ननदिया, जलेबी जइसन…’ जोर-जोर से गाते हुए पगड़ी बांधे मगन हो साइकिल से भगेलू चला आ रहा था कि अचानक उसकी निगाह दुआरे बइठे लोगों के समूह पर जा पड़ी, सकपका गया भगेलू। ‘हो न हो जरूर हमार देखुआर होंगे’ मन ही मन सोचने लगा भगेलू और शालीन बनने की कोशिश करने लगा। बच्चे उसे देखते ही अगल-बगल मछियाने लगे थे, मुंह दबा-दबा कर हंसने भी लगे थे। अब तो सिद्ध ही हो गया था कि देखुआर ही हैं। भगेलू सकुचाते हुए, शर्माते हुए, कॉलर ठीक करते हुए, इधर-उधर देखते हुए साइकिल खड़ा करते ही, धीरे से गलियारा के रास्ते घर में घुस गया। अंदर भौजाई बर्तन की खोजाई एवं धुलाई में परेशान थी कि निगाह भगेलू पर पड़ गई।
‘अरे, का हो देवरूऽ केस् लजात् बाट्य राजू। जाऽ जल्दी तैयार होइजाऽ, तोंहंइन के देखइ आइ हयेन सब।’
भगेलू शर्माते हुए घर में घुस गया।
‘अरे सुनऽ राजू…, जात्ऽ गिलास अउर प्लेट मांगि लियउतऽ काको के हिंया से, दुइठे कम पड़त हौ।’
भगेलू एक बार तो गुसियाया पर तुरंत शांत भी हो गया। इसके पहले कइ बार देखुआर आ चुके थे पर बात नहीं बन सकी थी इसलिए भगेलू को शांत रहना ही सही लगा। ओसारे के कोठरी वाली खिड़की से आवाज देकर काको से बर्तन मांग भगेलू धीरे से आंगन में ला दिया। गुड़ की भेली और पानी सजते देख बड़का भैया आए और तुरंत प्लेट और गिलास लिए बाहर चले गए। बाल्टी भर कर पानी पहले ही रख आए थे। ददा सभी से बतियाने में मगन थे और खूब बड़ी-बड़ी हांक रहे थे, हांकने का काम उधर से भी चालू था। पानी पी लेने के बाद ददा भैया को भगेलू को बुलाने हेतु भेज दिए।
भौजी भगेलू को सजाने में लगी हुई थी। अम्मा दौड़-दौड कर अन्य काम किए जा रही थी, पर बीच-बीच में भगवान की पूजा भी कर आ रही थी कि इस बार बात जरूर बन जाए।
भैया के बियाहे वाला चप्पल और कपड़ा पहन भगेलू तैयार हो गया था। लजाते, शर्माते बाहर आ गया। अपनों से बड़ों का पैर छूना चाहा था, पर उसी में बारह साल के बच्चे का भी पैर छुआ गया। जोर से हंसा बच्चा सभी हंसने को हुए पर दबा गए अपने-अपने हिस्से की हंसी। ददा अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह गए। भगेलू भी क्या करता, खींस बनाकर रह गया।
‘आवऽ बैइठऽ’ उधर से आए चचा ने बैठने का प्रस्ताव दिया और खटिया के मुड़वारी से खिसककर गोड़वारी की तरफ बैठ गए। भगेलू बैठने ही जा रहा था कि अचानक पिछली बार की बात याद हो आई जब मुड़वारी बैठने से देखुआर भाग खड़े हुए थे।
‘आप इधर बैइठंई चचा हम उधर बइठ जाब’, चचा हंसते हुए खिसक गए। पहली परीक्षा पास कर ली थी भगेलू ने। बेचैनी भगेलू के चेहरे पर साफ दिखाई पड़ रही थी, रह-रह कर अंगुली से ही नाखून निकालने का उपक्रम करता या फिर दांतों से अंदर के होंठ को ही काट लेता। बाल भी खुजलाना चाहा पर खुजला नहीं पा रहा था कि ननियाउर कहां है बचवा? उधर से आए सबसे बुजुर्ग ददा ने पूछा।
भैया बताइ दऽ नऽ, भैया को देखते हुए बड़े ही आस में भगेलू बोला।
भैया से पहले ददा ही सम्हाल लिए मोर्चा- ‘अरे ऊ तुम्हरे इंहा से दुइ कोस पूरुब में ऊ कवन गांव हऽ… हां, मल्हियान गांव में हऽ ननिआउर।’
पूछने वाले ददा दांत निकाल के रह गए।
‘पढ़ाई कहां तक किए हो बेटवा’, लड़की के पिता जी ने पूछा।
पहले तो दो मिनट तक इधर-उधर देखता रहा भगेलू, क्या बोलूं समझ ही नहीं आ रहा था कि हिम्मत करके बोल उठा।
‘सत्ताइस के परीक्षा दिए हैं अब अट्ठाइस में नाम लिखाएंगे।’
‘का…?’ सभी भौंचक हो एक-दूसरे का मुंह निहारने लगे।
ददा ताड़ गए, कुछ तो गड़बड़ भई है।
‘अरे ऊ का हौ नऽ, पढ़ने में बचवा हमार बहुत तेज हौ बस्…’
‘बस करऽ चचा, बहुत भवा, तोहार बेटवा तोहंइ मुबारक।’
देखुआरे एक बार फिर भाग खड़े हुए।
(लेखक ‘बखार कला’ पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)