मुख्यपृष्ठसंपादकीयदेर से आई समझदारी!

देर से आई समझदारी!

पाकिस्तान एक बड़ा चमत्कारी देश है। वहां के नेता जब सत्ता की कुर्सी पर बैठे हों तो पाकिस्तानी जनता का दिल जीतने के लिए हिंदुस्थान के खिलाफ जहर उगलते हैं। बुरी तरह से हिंदुस्थान-विरोधी झूठी बयानबाजी करते हैं और सत्ता से हटने के बाद उन्हें पाकिस्तान की गलतियां नजर आने लगती हैं, सच्चाई का एहसास होने लगता है और वह सब बताने के लिए उनके भीतर तूफान हिलोरें मारने लगता है। बहुत देर हो जाने के बाद वे पाकिस्तानी लोगों को यह बेकार सच्चाई समझाना शुरू करते हैं। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ फिलहाल यही कर रहे हैं। २८ मई को पाकिस्तान के पहले परमाणु परीक्षण के २६ साल पूरे हो गए। इस मौके पर आयोजित कार्यक्रम में नवाज शरीफ को सच बोलने का दौरा चढ़ा। इस समारोह में बोलते हुए नवाज शरीफ ने सार्वजनिक रूप से कबूल किया कि ‘कारगिल युद्ध पाकिस्तान की गलती थी।’ शरीफ ने कहा, ‘२८ मई १९९८ को पाकिस्तान ने पांच परमाणु परीक्षण किए। उसके कुछ महीने बाद हिंदुस्थान के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी खुद पाकिस्तान के दौरे पर आए और लाहौर में पाकिस्तान के साथ शांति समझौता किया। इस करार पर दोनों देशों ने दस्तखत किए थे, लेकिन इस लाहौर समझौते को हमने यानी पाकिस्तान ने तोड़ा। पाकिस्तान ने गुप्त रूप से अपनी सेना कारगिल में भेज दी और जिसकी वजह से हिंदुस्थान के साथ जंग छिड़ गई। हमने शांति अनुबंध का उल्लंघन किया, जिसके चलते कारगिल युद्ध भड़का इसलिए लाहौर समझौते को तोड़ना हमारी गलती थी।’ कारगिल युद्ध के २५ साल बाद नवाज शरीफ ने बहादुरी से यह सच पाकिस्तान की जनता के सामने रखा। हालांकि, इस सच के लिए शरीफ की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन इस ‘पछतावे’ से अब क्या हासिल होगा? हिंदुस्थान के प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर यात्रा की, उस वक्त नवाज शरीफ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। जिस वक्त नवाज शरीफ वाजपेयी से गले मिल रहे थे, इस वक्त पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ कारगिल में घुसपैठ की साजिश रच रहे थे। मतलब एक हाथ से पाकिस्तान हिंदुस्थान से हाथ मिला रहा था और वहीं पाकिस्तान दूसरे हाथ से हिंदुस्थान की पीठ पर खंजर घोंप रहा था। यही है पाकिस्तान का दोगला चरित्र। लाहौर समझौते में कश्मीर समेत परमाणु अस्त्रों का इस्तेमाल न करने के बाबत कई मसलों पर सहमति जताई गई थी। शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए दोनों देश कटिबद्ध होंगे, दोनों देशों के लोगों के हितों की रक्षा के लिए आपसी सहयोग पर भी लाहौर समझौते में जोर दिया गया, लेकिन फक्त दो महीनों में ही पाकिस्तान ने ये सभी वादे तोड़ दिए और लाहौर समझौते की धज्जियां उड़ाते हुए पाकिस्तानी फौज ने नियंत्रण रेखा पार कर कारगिल के हिंदुस्थानी इलाके में एक बड़ी घुसपैठ की। हिंदुस्थानी सेना ने जबरदस्त वीरता का प्रदर्शन करते पाकिस्तान को करारी शिकस्त देते हुए कारगिल लड़ाई जीत ली, इस इतिहास से सारी दुनिया वाकिफ है, लेकिन पाकिस्तान अब भी इस बात को लेकर उलझन में है कि क्या पाकिस्तानी फौज ने नवाज शरीफ को अंधेरे में रखकर कारगिल में घुसपैठ की थी या मुशर्रफ ने सरकार को विश्वास में लेकर यह कदम उठाया था। यह विश्वास करना भी मुश्किल है कि मुशर्रफ ने शरीफ सरकार के रक्षा मंत्रालय को भनक दिए बिना यह कदम उठाया होगा। इसके अलावा युद्ध छिड़ने के बाद निर्वाचित सरकार के मुखिया के तौर पर शरीफ ने उसी वक्त इस गलती को कबूल क्यों नहीं की और अपनी फौज को कारगिल से हटने का निर्देश क्यों नहीं दिया? इसके उलट जंग छिड़ने के बाद पाकिस्तान सरकार ने दावा किया कि इसमें उनकी फौज का कोई इंवॉल्वमेंट नहीं है। यह भी उतनी ही हकीकत है कि शरीफ सरकार ने उस समय दावा किया था कि कारगिल में हमारे सैनिक नहीं लड़ रहे थे, बल्कि वे कश्मीर के स्वतंत्रता सैनिक थे। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का यह बयान कि लाहौर संधि को तोड़ना और कारगिल युद्ध को भारत पर थोपना हमारी गलती थी, देर से आई समझदारी है। जिस हकीकत का पता २५ साल पहले पूरी दुनिया को था उसे अब कबूल करने से क्या फायदा? इसलिए बासी कढ़ी में उबाल लानेवाले ‘सत्य’ की जुगाली करने से बेहतर है, फिर से उन्हीं गलतियों को दोहराने की साजिश अगर पाकिस्तान रोक दे तो यही काफी होगा!

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