कई दर्जनों ख्वाहिशें, आती हैं और फिर चली जाती हैं
इक नई ताकत, इक नई दिशा
यादों को मिलती है, जरा सोचो तो वो
मिलते हैं मुझे, धीरे-धीरे करके ढलते हैं वो
जैसे पेड़ से रस्सी पकड़ के,
धीरे-धीरे उतर रहे हो, वो मेरी तरफ बढ़ रहे हैं ” ऐसे…बार- बार
हर बार खयाल के मौसम उठते हैं, कि वो आये सामने,
और उसे चूम लूं, उसे देख लू
और उसे छू लू, कई दर्जनों ख्वाहिशें
आती हैं और फिर चली जाती हैं
– मनोज कुमार, गोंडा-उत्तर प्रदेश