लोकमित्र गौतम
पहले कनाडा के साथ हुए तनाव के कारण, उसके पहले यूक्रेन पर हुए रूस के हमले के कारण और आज कल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कारण इन दिनों भारत के लाखों छात्र जो अमेरिका, कनाडा या यक्रेन में पढ़ रहे हैं, वो बहुत किस्म की समस्याओं के चक्रव्यूह में फंस गये हैं। अचानक राष्ट्रपति ट्रंप की इस सनक के चलते कि राजनीतिक झुकाव वाले छात्रों को अमेरिका में दाखिला नहीं दिया जाएगा, उधर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा देने के कारण भी इन दिनों अमेरिका में मौजूद करीब तीन से साढ़े तीन लाख छात्रों के बीच कम से कम ५० से ५४ हजार छात्रों के सिर पर अपनी पढ़ाई के पूरी न होने या अधूरी रह जाने की तलवार लटक रही है। चाहे भारत और कनाडा के बीच तनाव की बात रही हो या यूक्रेन पर रूस द्वारा हमला किए जाने की बात हो रही हो या फिर राष्ट्रपति ट्रंप की अमेरिकी विश्वविद्यालयों के वैंâपस में छात्रों के यहूदी विरोधी झुकाव के प्रदर्शन का कारण रहा हो। आखिर इन सब वजहों में भारत के उन छात्रों का क्या कसूर है, जो अपने मां-बाप की गाढ़ी कमाई को खर्च करके अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए गये हैं। वास्तव में ये सिर्फ भारतीय छात्रों पर आई आफत नहीं है, असल बात तो यह है कि आजकल किसी भी वजह से दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आपसी तनाव का शिकार उस देश के छात्र हो जाते हैं, जिनका उस तनाव से कोई लेना-देना नहीं होता।
गुणवत्ता को लेकर सरकार उदासीन
भारत से हर साल विदेश पढ़ने जाने वाले छात्रों की संख्या लाखों में है और यह लगातार बढ़ रही है। साल २०२४ के आंकड़ों की बात करें तो लगभग ७.५ लाख से ज्यादा भारतीय छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा पाने के लिए गए थे, जबकि २०१६ में यह संख्या ४.५ लाख के आस-पास थी। लेकिन कोरोना के बाद इस संख्या में जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई। क्योंकि २०२० में जहां विदेश में पढ़ने वाले छात्र ५.९ लाख थे, वहीं २०२४ में उनकी संख्या ७.५ लाख से ज्यादा हो गई। भारत से लगातार विदेश में जाकर पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही है। इसके कई कारण हैं। एक तो १९९० के दशक के बाद भारत में उदारीकरण के चलते बड़े पैमाने पर जो विदेशी कंपनियां आई हैं, वे ऐसे प्रोफेशनल्स की मांग ज्यादा कर रही हैं, जिनके पास विदेशी डिग्रियां होती हैं या दूसरे शब्दों में भारत में विदेशी कंपनियों के आने के बाद विदेशी डिग्रियों की मांग बढ़ी है, जिससे कार्पोरेट जगत में अपना चमकदार वैâरियर बनाने के लिए बड़ी संख्या में भारतीय छात्र पढ़ने के लिए विदेशों की ओर रूख कर रहे हैं। दूसरी बड़ी वजह यह है कि अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में हाल के दशकों में इंजीनियरिंग, कंप्यूटर साइंस और मेडिकल क्षेत्रों में अवसरों की भारी बढ़ोतरी हुई है। इससे इन देशों में पढ़ाई करके इन अवसरों के पाने की उम्मीद में बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेश जा रहे हैं।
विदेशों में पढ़ाई के आकर्षण का भारतीय छात्रों के लिए एक तीसरा कारण यह है कि साल २०१० के बाद भारतीय बैंकों और गैरबैंकिंग संस्थानों ने एजुकेशन लोन बड़ी उदारता से देना शुरू किया है, जिससे विदेशों में पढ़ाई करना अब सिर्फ अमीर लोगों का शौक नहीं रहा, बल्कि आम मध्यम वर्ग के लोगों का भी बैंकों और गैरबैंकिंग वित्तीय संस्थानों से लोन लेकर इसके प्रति रुझान बढ़ा है। कोविड-१९ के बाद दुनिया के कई विकसित देशों ने विदेशी छात्रों को पोस्ट स्टडी वर्क वीजा-पीआर स्कीम और कई तरह की स्कॉलरशिप भी पेश की हैं, जिनके कारण भी विदेश पढ़ने जाने वाले छात्रों की संख्या में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इन सबके अलावा कुछ कारण हमारे शैक्षिक संस्थानों की कमी के भी हैं, जिन पर अकसर हम बात करने की बजाय चुप रह जाते हैं। दरअसल, भारत की शिक्षा प्रणाली खास करके उच्च शिक्षा में संसाधनों की बेहद कमी और व्यावहारिक ज्ञान का इसमें नितांत अभाव है। जिस कारण भारत में उच्च शिक्षा पूरी करने वाले छात्रों को अनुसंधान में जो एक्सपोजर की जरूरत होती है, जिन संसाधनों का होना अनुसंधानों के लिए महत्वपूर्ण होता है, ऐसी तमाम कमियों से गुजरना पड़ता है, जिस कारण भारत में उच्च शिक्षा पूरी करने वाले छात्रों को न तो सही से व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है और न ही अपने देश में वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लायक दक्षता हासिल होती है।
यही कारण है कि गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई के लिए भी बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को विदेशी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों की तरफ रुख करना पड़ता है। फिर एक बात यह भी है कि भारत के टॉप टैक्नो और मेडिकल संस्थानों मसलन आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस आदि में सीटें बहुत सीमित होती हैं और योग्य छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा होती है, इस कारण सबको प्रवेश नहीं मिल पाता और बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ता है। इस सबके अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे देशों ने हाल के सालों में परमानेंट रेजिडेंट और रोजगार का भी लालच दिया हैं। जिस कारण भी इन देशों में भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे येन-केन प्रकारेण रूप से जाना चाहते हैं। साथ ही अब पढ़ाई केवल ज्ञान प्राप्त करने का जरिया नहीं है, बल्कि डिग्री एक स्टेट्स सिंबल है। आज के माहौल में किसी अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले संस्थान की डिग्री होने का मतलब रोजगार की गारंटी और समाज में प्रतिष्ठा पाने का जरिया है इसलिए भी विदेशों में जाकर पढ़ाई करना अब जरूरी हो गया है।
छात्र टार्गेट, सरकार मौन
लेकिन अपने जीवन को निखारने और सफल बनाने के लिए जो छात्र भारी मेहनत करके विदेश पढ़ने के लिए जाते हैं, उन सबका जीवन इन देशों के आपसी राजनीतिक संबंधों और कूटनीतिक विवादों के चक्रव्यूह में फंसकर रह जाता है। मसलन जब २०२३-२४ में भारत और कनाडा के द्विपक्षीय राजनयिक रिश्तों में खटास आयी, तो कनाडा ने हजारों भारतीय छात्रों के पढ़ाई वीजा रद्द कर दिये और कुछ को तो बीच में विदेशी विश्वविद्यालयों से अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत वापस आना पड़ा। इसी तरह ब्रिटेन ने जब पढ़ाई के बाद डिपेंडेंट वीजा पर रोक लगाई, तो भी कई भारतीय छात्रों ने अपना दाखिला रद्द करवा दिया और कई तो दाखिला लेने के बाद भी वापस आ गये। राजनीतिक तनाव के कारण सिर्फ सरकारें ही छात्रों पर प्रतिबंध जैसे जुर्म नहीं ढातीं, बल्कि कई बार विदेशी विश्वविद्यालय के खुद अपने रवैये में बदलाव आ जाता है। जिस कारण वे भारतीय छात्रों के साथ भेदभाव करने लगते हैं। उनकी अतिरिक्त जांच शुरू कर देते हैं और कई बार बतौर सजा भारतीय छात्रों को हाईरिस्क कैटेगिरी में रख देते हैं। जिससे भारतीय छात्रों की पढ़ाई बाधित होती है और उन्हें या तो पढ़ाई छोड़कर वापस आना पड़ता है या पढ़ाई करने के बाद भी भविष्य के लिए जो उम्मीदें लेकर गए होते हैं, विदेशों में उनकी वे उम्मीदें पूरी नहीं होती।
हाल के सालों में तो भारत के विरुद्ध दुनिया के कई देशों में नस्लवाद और सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना भी बड़े पैमाने पर पनपी, जिस कारण ऑस्ट्रेलिया, कनाडा यहां तक कि अमेरिका आदि में भारतीय छात्रों के साथ खूब भेदभाव होते देखे गए हैं, जिससे परेशान होकर बहुत बड़ी संख्या में छात्र या तो पढ़ाई बीच में ही छोड़कर देश वापस आ जाते हैं या फिर पढ़ाई करने के बाद भी उन्हें अपनी मंजिल हासिल नहीं होती। मतलब यह कि भारतीय छात्र जिनका पढ़ने के अलावा दूसरा और कोई मकसद नहीं होता और वे पढ़कर अपना भविष्य बेहतर बनाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं, उन छात्रों का बिना कोई कसूर हुए भी भारत के साथ अगर उन देशों के कूटनीतिक रिश्ते बिगड़ते हैं, जहां वे पढ़ाई के लिए गये होते हैं, तो भविष्य चौपट होने की आशंका बनी रहती है यानी छात्र कूटनीति की सबसे कमजोर कड़ी बनकर रह जाते हैं। सवाल है इसके लिए आखिर क्या किया जाना चाहिए? सबसे पहले तो यह कि भारत के छात्र विदेश में पढ़ने जाते हैं तो बड़े पैमाने पर भारत से विदेशी मुद्रा विदेश जाती है, लगभग ३० से ३५ बिलियन डॉलर भारत के सारे विदेश पढ़ने जाने वाले छात्र हर साल अपनी पढ़ाई पर खर्च करते हैं। दूसरे शब्दों में हर साल भारत से ३० से ३५ बिलियन डॉलर की रकम विदेश चली जाती है, क्योंकि भारत में गुणवत्तापूर्ण उच्च शैक्षिक संस्थान नहीं हैं, तो सबसे पहले भारत सरकार और यहां के कार्पोरेट जगत को इस भारी भरकम रकम को विदेश जाने से बचाने के उद्देश्य से अपने देश में कम से कम तीन से चार दर्जन उच्च गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक संस्थान विकसित करने होंगे, ताकि भारत की गाढ़ी कमाई यूं विदेश न जाए।
दूसरी बड़ी बात यह है कि जब भारत के छात्र किसी देश में बड़े पैमाने पर शिक्षा हासिल करने के लिए जाते हैं, तो सरकार का यह दायित्व बन जाता है कि वह उन देशों के साथ द्विपक्षीय छात्र नीति या शिक्षा नीति पर समझौते करे, ताकि उन देशों के साथ राजनीतिक रिश्ते बिगड़ने का खामियाजा छात्रों को न भुगतना पड़े। एक और महत्वपूर्ण बात भारत सरकार को यह करनी होगी कि जैसे बड़े पैमाने पर भारत में विदेशी कंपनियां आ रही हैं, उसी तरह विदेशी विश्वविद्यालयों को भी हमें अपने यहां आमंत्रित करना चाहिए, जिससे देश में उच्च शिक्षा का गुणवत्तापूर्ण माहौल भी बनेगा और विदेश जाकर पढ़ाई करने से जो स्टेट्स सिंबल हासिल होता है, वह भी हासिल होगा। इस तरह सरकार को अगर अपने छात्रों की जरा भी चिंता है तो उसे ये कदम तुरंत उठाना चाहिए, ताकि कूटनीतिक मनमुटाव का वे शिकार न हों।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)