डॉ. वासिफ काजी
अपने जीवन में आप अनेक व्यक्तियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क में आते हैं, उनकी प्रेरणादायक बातें आपके जीवन के लिए संजीवनी सिद्ध होती हैं, मेरे जीवन में मुख्यतः मैं जिनसे अत्यधिक प्रभावित रहा हूं या यूं कह लीजिए कि मैं उनकी परछाई रहा तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, वो हैं मेरे स्वर्गीय पिता जी। उनके नाम के साथ स्वर्गीय शब्द मुझे अगाध पीड़ा पहुंचा रहा है, क्योंकि जीवन के जिस दौर में मुझे उनकी सख़्त आवश्यकता थी, उस समय भगवान ने उन्हें अपने पास बुला लिया, खैर नियति का लिखा अमिट होता है।
पापा ने हमेशा मुझे ईमानदारी का सबक सिखाया, उन्होंने यह कहा कि तुम्हारा व्यक्तित्व ही तुम्हारे कृतित्व से बनता है, बेईमानी से कमाकर एकत्रित किया धन व्यक्ति को कभी सुख, संतोष एवं शांति नहीं दे सकता, आज जब वो विदेह हो चुके हैं तो उनकी यह शिक्षा अक्षरदेह बनकर मेरा मार्गदर्शन कर रही है।
यह संस्मरण उस समय का है, जब मैं कक्षा 9वीं का विद्यार्थी था, मैं कक्षा का कक्षा प्रतिनिधि (मॉनिटर) था। विद्यालय में कुछ सांस्कृतिक आयोजन होने वाला था। कक्षा के सभी विद्यार्थियों ने 20,20 रुपए मेरे पास एकत्रित किए थे, जो तकरीबन एक हजार रुपए के आस-पास का कलेक्शन हो गया था और नब्बे के दशक में एक हजार रुपए, दस हजार के बराबर थे। हमारे कक्षा अध्यापक मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। उन्होंने पूछा कि वासिफ कितना कलेक्शन हुआ है, मैंने कहा कि सर एक हजार रुपए। वो जानते थे कि कई बार मैं स्कूल और क्लास की उन्नति के लिए कुछ न कुछ खरीद कर उपहार स्वरूप देता था, कभी डस्टर, चौक के डिब्बे, बल्ब, सरस्वती मां की तस्वीरें आदि…
चूंकि मेरे पापा स्वयं एक शिक्षक थे, वो मुझे अच्छे कार्य के लिए कभी मना नहीं करते। सर ने कहा कि बेटा मैं तुम्हें अपनी तरफ़ से पांच सौ रूपये दे देता हूं। सर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव रखते हुए कहा कि तुम किसी को मत कहना, ये पांच सौ और अपने कलेक्शन से पांच सौ रुपए मिलाकर पूरे एक हजार जमा कर देना। मैं सोच में पड़ गया। मैंने कहा कि सर कुल पंद्रह सौ हो जाएंगे, उन्होंने कहा कि तुम मेरा मत कहना और पांच सौ अपने पास रख लेना। यूं भी तुम मॉनिटर होने के नाते कक्षा की बेहतरी के लिए खूब खर्च करते हो, अच्छा अवसर है यह पांच सौ रुपए तुम रख लो किसी को पता नहीं चलेगा। मैं घर आ गया, पापा को सब बात बताता था। पापा को जब यह बात बताई तो पापा एक पल के लिए मुस्कुराए, फिर बोले कि बेटा ये पैसे तुम्हारे दोस्तों की अमानत है, उनका अटूट विश्वास है तुम्हारे प्रति। क्या उनके साथ विश्वासघात करना उचित होगा, क्या मैं तुम्हारे पालन-पोषण में कुछ कमी रख रहा हूं।…. सोच लो। पापा समझ गए थे कि सर मेरी परीक्षा ले रहें हैं।
दूसरे दिन स्कूल लंच टाइम में मैंने सर को पूरे पंद्रह सौ रुपए देकर यह कहा कि सर आपका आदेश मेरे लिए प्रणम्य है, परंतु मेरे पापा की आज्ञा, उनकी सीख मैं नहीं भूल सकता। वो मेरे आदर्श हैं, कृपया आप गलत न समझें और इसे मेरा निवेदन समझकर स्वीकार कर लें। सर की आंखों में भी आंसू आ गए। उन्होंने पीठ थपथापकर कहा कि वासिफ धन्य हो तुम और धन्य हैं आपके ईश्वर तुल्य पिताजी…शाबाश, तुमने अवसर का लाभ न उठाते हुए दोस्ती और भरोसे को महत्व दिया, पिता की आज्ञा को सर्वोपरि रखा।
आज भी पापा की शिक्षाएं मुझे बुराइयों से दूर रख रही हैं। मैं अच्छा इंसान बन सका या नहीं यह तो नहीं जानता, परंतु अपने पिता को अपनी आत्मा में, अपने जमीर में जरूर जिंदा रखे हुए हूं, वो मेरे साथ चलते हैं एक सशक्त विचार बनकर। पवित्र भावनाओं से सराबोर उनके मन को विराट महासागर भी नमन करता है। देवलोक से उनकी आत्मा यह देखकर जरूर संतुष्ट होगी कि उनके बेटे ने उनके मरणोपरांत भी उनके नाम के सम्मान को यथावत बना कर रखा है।