डॉ. दीनदयाल मुरारका
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने अपने समय में सामाजिक, धार्मिक, क्रांति की थी। वेदों के अलावा और भी अनेक विषयों पर उन्होंने गहन अध्ययन किया था। लोग उनकी प्रतिभा का लोहा मानते थे, पर अनेक विद्वान मन ही मन उनसे ईर्ष्या भी करते थे। वह उन्हें नीचे दिखाने का मौका ढूंढते रहते थे, पर दयानंद इससे विचलित नहीं होते थे।
वह अपनी प्रखर बौद्धिकता और विनोदप्रियता से उन्हें मात दे देते थे। अनेक विरोधी दल बड़े उत्साह और जोश से उनके पास आते, लेकिन उनसे पराजित होकर लौट जाते। एक दिन दक्षिण से जिज्ञासुओं का एक दल उनसे अपनी शंका का समाधान कराने आया। दयानंद ने उन सबका यथोचित सत्कार किया और प्रेमपूर्वक बैठने के लिए कहा। उनमें से वेंकटगिरी नामक एक अतिथि बोला, जिस आसन पर आप विराजते हैं, मैं तो वहीं बैठूंगा। दयानंद ने उसके लिए अपना आसन छोड़ दिया। तभी पेड़ पर बैठा कौवा कांव-कांव करने लगा। दयानंद बोले, देख लीजिए यह कौवा कितने ऊंचे स्थान पर बैठा है, पर क्या केवल उच्च स्थान पर बैठने से कौवा भी विद्वान माना जाएगा? तभी एक अन्य सज्जन ने उन्हें घेरने के लिए प्रश्न किया बताइए, आप विद्वान हैं या एक सामान्य पुरुष?
दयानंद उसका आशय समझ गए। उन्होंने सोचा कि अगर वे खुद को विद्वान कहेंगे तो उसमें आत्मप्रशंसा झलकेगी और यदि अपने को सामान्य बताएंगे तो प्रश्न उठेगा कि उन्हें दूसरे को उपदेश देने का अधिकार कैसे मिला? उन्होंने कहा, भाइयों मैं वेद, व्याकरण, धर्म, दर्शन का विद्वान हूं, पर व्यापार, चिकित्सा शास्त्र आदि में एकदम शून्य हूं। दयानंद का यह उत्तर सुनकर लोगों की बोलती बंद हो गई। उन्होंने स्वामीजी से क्षमा मांग ली।