तन और मन हो न एक से
कथन यह बड़ा निराला
मन होता जिसका उज्ज्वल
तन होता उतना काला
तन के उजले लोगों के
मन में धधकती दम्भ की ज्वाला।
लंकेश अनुजा स्वरूपनखा थी
नख से शिख तक इक सुन्दर नारी
लेकिन थी दम्भ,काम की अधिकारी
विष रस भरा हो कनक घट जैसे
लक्ष्मण जी को कर रही प्रणय निवेदन
कर दी लंका विनाश की तैयारी।
अष्टावक्र ने कहा जनक सभा में
सुनो , विद्वान जनों कह रहा मै जो
मेरे तन में अष्ट वक्र हैं, किन्तु
तुम सबके मन में अनगिनत छल हैं
करो आत्म चिंतन मिल सब
ज्ञान बड़ा होता गात से।
रूपमती रजकन्या थी गंधारी
सुंदर केश राशी थी प्यारी
अंध पति धृतराष्ट्र संग
अपनी आंखों पर पट्टी धारी
पुत्र मोह में हो गये अंधे दोनों
दुर्योधन, शकुनि की न दिखी मक्कारी
श्री कृष्ण जी को कर श्रापित
आजीवन हुई दुखियारी।
गुरु पुत्र, योद्धा थे अश्वत्थामा
क्रोधाग्नि में वंश हीन कर दिए थे पांडव
माथे पर ले नासूर घाव
भोग रहा श्राप आजतक।
देवेन्द्र इंद्र भी कुछ कम नहीं
जिनका सिंहासन नित
रहता डोलता
देख तपस्या साधना किसी ऋषि मुनि की
अपना अस्तित्व बचाने हेतु
कर्ण, दधीचि, अहिल्या मां से
विश्वास घात कर डाला।
सुंदर तन में अक्सर
नहीं मिलता सुंदर मन
सुंदर मन चाहिए कैसा भी मानव तन।
बेला विरदी।