राजन पारकर
मुंबई का मलबार हिल स्थित `वर्षा बंगला’ अब किसी सरकारी आवास से अधिक एक ऐतिहासिक धरोहर बन चुका है। महाराष्ट्र की जनता को लगने लगा है कि यह अब सिर्फ एक मुख्यमंत्री का आवास नहीं, बल्कि एक पवित्र स्थल है, जहां प्रवेश करने के लिए विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है। जब से देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं, तीन महीने हो चुके हैं, परंतु वह अभी भी शायद वह पवित्रता हासिल नहीं कर पाए हैं कि वे वर्षा बंगले में प्रवेश कर पाएं। कारण? पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे अभी तक उस बंगले को छोड़ने के लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से तैयार नहीं हुए हैं।
शिंदे के `त्याग’ का अनुपम उदाहरण
यह इतिहास में पहली बार हो रहा है कि एक पूर्व मुख्यमंत्री का अपने आधिकारिक बंगले के प्रति इतना गहरा लगाव है कि सत्ता बदलने के बावजूद वह वहां से हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं! मानो वर्षा बंगले से उनका रिश्ता सिर्फ सरकारी सुविधा तक ही सीमित न होकर आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंच गया हो।
लोगों का कहना है कि एकनाथ शिंदे को अब `बंगला योगी’ का दर्जा दे देना चाहिए। वे वर्षा बंगले में ऐसे रम गए हैं, जैसे कोई ऋषि अपनी गुफा में ध्यानस्थ हो! जनता इस चमत्कारी स्थिति को देखकर सोच रही है कि क्या यह बंगला छोड़ते ही उनकी सत्ता की शक्ति भी चली जाएगी?
फडणवीस की प्रतीक्षा
इधर देवेंद्र फडणवीस बेचारे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब वर्षा बंगला खाली होगा और वे मुख्यमंत्री के रूप में उसमें प्रवेश करेंगे। मगर ऐसा लगता है कि वर्षा बंगला अब सिर्फ एक सरकारी भवन ही नहीं रहा, बल्कि वह महाराष्ट्र की राजनीति में स्थायित्व की परीक्षा बन गया है।
क्या वर्षा बंगला अब ‘शिंदे स्मारक’ बनेगा?
राजनीति में सत्ता परिवर्तन कोई नई बात नहीं, लेकिन किसी नेता का आधिकारिक बंगले से इस कदर प्रेम होना, अपने आप में एक अनोखी घटना है। जनता को अब यह चिंता सताने लगी है कि कहीं यह बंगला एकनाथ शिंदे के नाम से ही न जाना जाए! कौन जाने, भविष्य में इसे `एकनाथ शिंदे स्थायी निवास’ घोषित कर दिया जाए!
वर्षा बंगले की आत्मा का विलाप
अगर वर्षा बंगला बोल सकता, तो शायद वह यही कहता-
`हे शिंदे जी! कृपया हमें छोड़ दें, हमें भी फडणवीस जी की सेवा करनी है! हम सिर्फ आपका निजी महल नहीं, पूरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का सरकारी आवास भी हैं!’
राजनीति या बंगला प्रेम?
महाराष्ट्र की जनता इस नाटक को बड़े चाव से देख रही है। कुछ लोग इसे `बंगला प्रेम की अनोखी गाथा’ कह रहे हैं, तो कुछ इसे सत्ता छोड़ने के बाद की मनोदशा का उदाहरण मान रहे हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक बात तो साफ है कि महाराष्ट्र की राजनीति में मुख्यमंत्री बदले जा सकते हैं, परंतु वर्षा बंगला छोड़ना इतना आसान नहीं!
अब देखना यह है कि देवेंद्र फडणवीस कब तक अपनी `गृह प्रवेश’ की आस लगाए बैठते हैं और शिंदे जी कब तक `बंगला समर्पण’ से इनकार करते हैं। क्या यह नाटक यहीं खत्म होगा या फिर महाराष्ट्र की राजनीति में `वर्षा बंगला आंदोलन’ नामक कोई नई परंपरा जन्म लेगी? अंतत: राजनीति में कौन टिकेगा, सत्ता या बंगला? यह तो समय ही बताएगा!