आज सोचा तो खुद पे हुई हैरान
कैसे उसके आम से गुड्डे के साथ
मेरी सुंदर सी गुड़िया,
जो मेरी थी ‘जान और शान’
खूब धूम-धाम से उनकी शादी रचाई।
जब आई बारी करने की ‘विदाई’
सिर घूमा और खूब करी लड़ाई।
मसला था बड़ा ही नाजुक
लगा मुझे कि हो गया धोखा मेरे साथ
और मेरी सहेली क्यों बनी चालाक ?
अपने गुड्डे के साथ-साथ
मेरी प्यारी गुड़िया भी ले जाएगी
उसका तो जोड़ा बनेगा
मेरे हाथ खाली के खाली रह जाएंगे।
क्या खूब समझ तब की नासमझी में आई,
रोक डाली मेरी “गुड़िया की विदाई।”
उम्र बीती, अनुभव हुआ
जिंदगी ने जाने क्या समझ बनाई
सोच के साथ साथ,चाल बदली
मासूम आंखों को जो दिखी थी सच्चाई।
बिना सोचे, बिना लड़े, तैयारियां कर ली
कर दी बहन बेटियों की विदाई,
भारी मन लिए हुई वो आज पराई।
-नैंसी कौर
नई दिल्ली