सैयद सलमान
मुंबई
ईद की आमद होने को है। रमजान का पवित्र महीना लगभग अपनी समाप्ति पर है। यह महीना मुसलमानों के लिए आत्मशुद्धि और इबादत का समय होता है। इस महीने का अंतिम जुमा, जिसे ‘अलविदा जुमा’ कहा जाता है, विशेष आध्यात्मिक और भावनात्मक महत्व रखता है। मुस्लिम समाज अलविदा जुमा के दिन रमजान की पवित्रता में एक साथ इकट्ठा होकर ईश्वर से माफी, रहमत और नेकी की दुआ मांगते हैं। परंतु इस जुमा की अहमियत केवल इबादत तक सीमित नहीं है। रमजान के अंतिम जुमा का संदेश केवल एक विदाई खुत्बा नहीं, बल्कि यह एक ऐसा मौका है जब उलेमा अपने खुत्बे के माध्यम से समाज को नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय प्रगति की दिशा में प्रेरित कर सकते हैं। रमजान का उपवास व्यक्ति को अनुशासन, संयम और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता सिखाता है। यही गुण समाज के विकास के आधार हैं। आज के दौर में जब समाज ध्रुवीकरण और अफवाहों की चुनौतियों से जूझ रहा है, उलेमा की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। उन्हें खुत्बों में ऐसे संदेशों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो वैज्ञानिक सोच, लैंगिक समानता, धार्मिक सहिष्णुता और देशप्रेम पर आधारित हो। मस्जिदों के पेश इमाम और उलेमा न केवल धार्मिक मार्गदर्शक हैं, बल्कि समाज के नैतिक और बौद्धिक आधार भी हैं। आज के युग में जहां धर्म और विज्ञान, परंपरा और प्रगति के बीच तनाव दिखाई देता है, उलेमा को इन विरोधाभासों के बीच सेतु बनने की जरूरत है।
उलेमा का यह दायित्व है कि वे इस्लामी शिक्षाओं को समकालीन चुनौतियों से जोड़ें। उदाहरण के लिए, कुरआन में प्रकृति संरक्षण की बात कही गई है, ‘उसने तुम्हारे लिए धरती को समतल बनाया, तुम इसमें विचरण करो और उसके उपहारों में से खाओ।’ (अल-कुरआन- ६७:१५) यह आयत पर्यावरण संरक्षण को धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य बनाती है। उलेमा खुत्बों में इस तरह के संदेशों को जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जल संरक्षण जैसे विषयों से जोड़ सकते हैं। साथ ही तकनीकी प्रगति को ‘इल्म’ अर्थात ज्ञान की परिभाषा में शामिल कर युवाओं को नए शोध के लिए प्रेरित कर सकते हैं। आज का युवा वर्ग पहचान और उद्देश्य की तलाश में है। इस्लामिक स्वर्ण युग में वैज्ञानिक इब्ने सीना, दार्शनिक अल-फाराबी और गणितज्ञ अल-ख्वारिज्मी जैसे विद्वानों ने दुनिया को नया ज्ञान दिया। इनकी कहानियां बताकर युवाओं को शिक्षा, अनुसंधान और रचनात्मकता के प्रति जागरूक किया जा सकता है। साथ ही सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर उलेमा युवाओं तक पहुंच बना सकते हैं।
इस्लाम ने महिलाओं को शिक्षा, विरासत और सम्मान का अधिकार दिया था, लेकिन आज भी ये अधिकार सीमित हैं। उलेमा को चाहिए कि वे पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन से उदाहरण देते हुए महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक आजादी को बढ़ावा दें। इस्लाम कहता है, ‘ज्ञान प्राप्त करना हर मुसलमान पुरुष और महिला पर फर्ज है।’ इस्लामी इतिहास में फातिमा अल-फिहरी जैसी महिलाओं ने विश्वविद्यालयों की स्थापना कर शिक्षा में क्रांति लाने का काम किया। ऐसे प्रेरक प्रसंगों को खुत्बे का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। हिंदुस्थान जैसे बहुसांस्कृतिक देश में सामाजिक एकता के लिए अंतर्धार्मिक संवाद जरूरी है। उलेमा को अन्य धर्मों के नेताओं के साथ मिलकर शांति, सद्भाव और राष्ट्र निर्माण के प्रयासों में भाग लेना चाहिए। पैगंबर मोहम्मद साहब ने मदीना की संधि में यहूदियों और अन्य समुदायों के साथ सह-अस्तित्व का मॉडल पेश किया था। आज के संदर्भ में यह मॉडल सांप्रदायिक सद्भाव की नींव हो सकता है।
जकात और सदका की व्यवस्था इस्लाम में आर्थिक समानता का आधार है। उलेमा को चाहिए कि वे इसे केवल ‘दान’ तक सीमित न रखकर, सामाजिक उद्यमिता और रोजगार सृजन से जोड़ें। मस्जिदों को कौशल विकास केंद्रों के रूप में विकसित किया जा सकता है, जहां युवाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाए। इससे गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान होगा। आधुनिक जीवन की भागदौड़ और तनाव ने मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चुनौती बना दिया है। उलेमा खुत्बों में नमाज, ध्यान, मुराकबा और समाज के साथ जुड़ाव को मानसिक शांति का साधन बताएं। पैगंबर मोहम्मद साहब का जीवन संतुलन और सहनशीलता का आदर्श है, जिसे आज के संदर्भ में प्रासंगिक बनाया जा सकता है।
अलविदा जुमा का दिन याद दिलाता है कि रमजान की शिक्षाएं वर्षभर जीवन का हिस्सा बनें। उलेमा को चाहिए कि वे अपने प्रभाव का उपयोग समाज को नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में करें। मस्जिदें केवल इबादत की जगह नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन के केंद्र बन सकती हैं। जिस तरह रोजा हमें स्वयं को संयमित करना सिखाता है, उसी तरह उलेमा का दायित्व है कि वे समाज को संयम, न्याय और प्रगति के मार्ग पर ले चलें। इस अलविदा जुमा पर मुस्लिम समाज को सभी उलेमा के नेतृत्व में प्रण लेना चाहिए कि वे एक ऐसे भविष्य का निर्माण करेंगे, जहां धर्म और विज्ञान, परंपरा और आधुनिकता, विविधता और एकता साथ-साथ चल सकें।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक और देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)