” मैं भी संवर सकती थी, पर मैं सजी नहीं
इतने पर भी तुमने मुझे हंसकर स्वीकारा
जिस चाहत की मुझे चाह थी/तलाश थी
तुम्हारी ‘पहली मुस्कान’ में मुझे वो नसीब हुई
वर्ना ‘मेकॉप’ वाली ‘कृत्रिम चाहत’ ज़िंदगी भर
मेरा पीछा नहीं छोड़ती
मैं समझ गई कि ‘सरल, सहज सादगी वाले जीवन’ में ही ‘वास्तविक चाहत’ है, बाकी सब तो दिखावा ही समझें”
त्रिलोचन सिंह अरोरा