संघर्षों की छांव तले जो छिपा स्नेह का द्वार है,
चुपचाप सब सहने वाला, वो मेरा परिवार है।
थकी शाम जब लौटे घर को, थकन भी मुस्काए,
बिन कहे जो समझे मन को, वह आंखों की छाए।
कंधों पर जो बोझ उठाए, पर शिकवा न लाए,
हर सपना अपना कर ले जो, चुपचाप निभाए।
धरती-सा विस्तार है उसका, सागर-सा धैर्य,
उसकी छाया में ही पनपे, जीवन का यह शौर्य।
पीड़ा में भी जो मुस्कराएं , पर न दिखाए पीर,
पिता नहीं एक शब्द मात्र, वो तो साक्षात वीर।
वो सुबह जल्दी उठता है, सबके पहले जागे,
अपने सुख को छोड़, बच्चों के सपनों के लिए भागे।
डांटे तो भी प्यार छिपा हो, आंखें सब कुछ बोले,
उसके आशीषों से ही तो, जीवन में रंग घोले।
थामे रखे दीप सदा, जब जीवन में हो अंधकार,
ऐसा पिता ही तो है, सच्चा देवदूत-पुकार।
पिता से बड़ा नहीं यहां कोई धन-दौलत,
पिता के सम्मान से मिलता है शौहरत।
-नरेंद्र कुमार
आरा, बिहार