मुट्ठी भर राख
महोदय, आदमी का जीवन
शुरू होता है
मां की कोख से
पेट भरने को
करता है संघर्ष
जिंदगी भर
पालता है राग-द्वेष
करता है छल-कपट
दिन-रात डुबा रहता है
मोह-माया में
अपने-पराए,
जात-पात करके भी
हासिल है मुट्ठी भर राख
आखिरी मुकाम…
-अमृतलाल मारू ‘रवि’
इंदौर, म.प्र.