मुख्यपृष्ठस्तंभभोजपुरिया व्यंग्य : नेताजी! चलीं दल बदलीं, चुनावी बसंत आयल हौ

भोजपुरिया व्यंग्य : नेताजी! चलीं दल बदलीं, चुनावी बसंत आयल हौ

प्रभुनाथ शुक्ल
भदोही

मौसम आ राजनीति में कवनो अंतर नइखे। दुनो गिरगिट निहन रंग बदलेला। वइसे भी शरद ऋतु के बाद बसंत के मौसम आवेला। लोकतंत्र में चुनाव के मौसम हमनी के राजनेता खातिर बसंत निहन होखेला। इहाँ भी बसंत ऋतु के तरह सत्ता के चाहत में नया उम्मीद के संगे पार्टी अवुरी दिल बदल जाला। एक पार्टी से दूसरा पार्टी में जाए वाला राजनेता के अईसने अद्भुत स्वागत कईल जाला। लोकतंत्र में चुनाव के मौसम राजनेता के खातिर बहुत अनुकूल होखेला। चुनाव में पतझड़ के तरह पार्टी से इस्तीफा के बरसात होखे लागेला। एह पर कवनो कवि सटीक लिखले बाड़न। नेताओं इस्तीफा, बरसाओ चुनाव आ गईल बा। चुनाव के मौसम में जब पार्टी अवुरी दिल बदल जाला त अचानक उनकर विचारधारा भी गिरगिट निहन रंग बदले लागेला। चुनाव के मौसम में नेताजी के दिल में अचानक बदलाव आवेला अवुरी दरिद्रनारायण के सेवा करे के भाव जाग जाला। समाज में दबल-कुचलल, शोषित आ वंचित लोग के याद करे लागेला अवुरी मगरमच्छ के निहन आँसू गिरावे लागल।
जब चौतरफा बदलाव के खुशी स्वीकार कइल जा रहल बा त हमनी के अइसन टिप्पणी आ आलोचना से बचे के चाहीं जवन हमनी के प्राचीन मूल्य, संस्कृति आ परंपरा के नष्ट कइल चाहत बा। हमनी के प्रकृति अवुरी बदलाव के सिद्धांत के पालन करेवाला के सम्मान करे के चाही। काहे कि अइसन लोग हमनी के संस्कृति आ परंपरा के रक्षक हवें। कलयुग में इहे ह जहाँ हमनी के आदर्श हउवें। नेताजी! जेहि ओर दू डग बढ़वनी, ओहि दिशा में लाख डग बढ़नी, जहाँ एक नजर डालनी, ओहि दिशा में लाख नजर पडेला। एही लोग के चलते ही लोकतंत्र सुरक्षित बा। बदलाव के ई अभियान कवनो हालात में स्थापित रहे के चाहीं। काहे कि लोकतंत्र के असली सार इहे ह, आ राजनेता एकर खंभा हउवें। भगवान श्रीकृष्ण गीता में सच्चाई कहले बाड़े कि ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।’ मतलब कि आत्मा अमर बा। उ कबो ना मरेली। जइसे आदमी पुरान कपड़ा छोड़ के नया कपड़ा पहिरेला, ओसहीं आत्मा एगो नश्वर शरीर से निकल के दोसरा शरीर में प्रवेश करेला। इ सिद्धांत हमनी के राजनीति अवुरी राजनेता के पलायन प भी ओसही लागू होखेला।

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