मुख्यपृष्ठस्तंभकॉलम ३ : चुनौतियों भरी राह पर नई शिक्षा नीति

कॉलम ३ : चुनौतियों भरी राह पर नई शिक्षा नीति

प्रो. एमपी सिंह

नई शिक्षा नीति (एनईपी)-२०२० क्रियान्वयन के चौथे बरस के सफर पर तेजी से अग्रसर है। यह किसी बड़े सपने के साकार होने के मानिंद है। हालांकि, नई शिक्षा नीति की राह अभी चुनौतियों से भरी नजर आती है। इन चुनौतियों से पार पाने को मंथन की दरकार है। बारहवीं के बाद किसी विद्यार्थी के महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के बाद वहां से बाहर निकलने की राह को सुगम किया गया है। कम समय में योग्यता की कसौटी पर खरा उतरने के साथ ही पाठ्यक्रम की अवधि को अप्रत्याशित रूप से परिवर्तित किया गया है। यह निश्चित तौर पर अभूतपूर्व कदम है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रथम वर्ष उत्तीर्ण कर लेने के बाद ही यदि ३० से ४० फीसदी विद्यार्थी संबंधित संस्थान को छोड़ देते हैं, तो ऐसी स्थिति में संस्थान के सामने द्वितीय वर्ष में अपने संसाधनों के प्रबंधन की चुनौती होगी। शिक्षकों से लेकर शैक्षणिक कर्मचारियों एवं संस्थान की अन्यान्य व्यवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव होगा। संस्थानों की इस चुनौती के समाधान हेतु धरातल स्तर पर कार्य किए जाने की दरकार है।
चुनौती के समाधान के क्रम में पहला है कि पाठ्यक्रम के बीच में संस्थान छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या को सीमित या निर्धारित किया जाए। द्वितीय शुल्क निर्धारण करते समय शुल्क को घटते क्रम में रखें, जिससे संस्थान/पाठ्यक्रम को बीच में छोड़ने की प्रवृत्ति को घटाया जा सके। अंतत: इसके फलस्वरूप सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) को २०३५ तक वर्तमान २७ प्रतिशत से बढ़ाकर निर्धारित लक्ष्य ५० प्रतिशत तक किया जा सके। इसके क्रियान्वयन के बाद भविष्य की चुनौतियों पर अभी से कार्य योजना बनाकर समाधान की राह तलाशनी है। दूसरे क्रम में अब नई शिक्षा नीति-२०२० में प्रदत्त प्रावधान के तहत क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण कार्य करने पर पुरजोर वकालत की गई है। यह पूरी तरह सबके अनुकूल है। निज भाषा में निश्चित तौर पर विद्यार्थी विषय को बेहतर समझ सकता है। लेकिन दूसरे पक्ष पर गौर करें तो क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई करने के बाद भाषा संबंधी यह चुनौती कहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे महत्व को कमतर न साबित कर दे। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
तीसरी और महत्वपूर्ण बात कि नई शिक्षा नीति के मुताबिक हमारे शिक्षकों को भी मौजूदा ढांचे के अनुसार तैयारी करनी होगीr, अन्यथा नई शिक्षा नीति की सार्थकता को सिद्ध होने में कठिनाई हो सकती है। चतुर्थ और अंतिम बात यह है, अभी आईआईटी जैसी संस्था को हम इंजीनियरिंग की पढ़ाई के रूप में पहचानते हैं। आईआईएम को मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए जानते हैं। इन उच्च संस्थानों की मूल संरचना और इनका अध्यापन इसी दिशा पर कार्य करता है। अंदेशा है, अब ऐसे बहु प्रतिष्ठित संस्थानों को बहु-विषयक बनाने पर कहीं ये अपनी मूल संरचना और मूल भावना से विरत न हो जाएं। ऐसा न हो कि अधिकतम के चलते न्यूनतम भी अर्जित होने से रह जाए। हालांकि, फिलहाल तो ऐसा नजर नहीं आता। बावजूद इसके अध्ययन और अध्यापन के दौरान इन बिंदुओं की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।
(लेखक आईआईएम, अमदाबाद के पूर्व छात्र एवं तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद (यूपी) में निदेशक-छात्र कल्याण हैं। लेखक के ये अपने निजी विचार हैं।)

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