सामना संवाददाता / मुंबई
मुंबई मनपा ने अपनी जमीन पर बसी ६४ झुग्गी बस्तियों के पुनर्विकास के लिए झुग्गीवासियों की सहमति को गैरजरूरी करार दिया है। धारावी मॉडल पर आधारित इस पैâसले से पुनर्विकास की राह तो आसान हो सकती है, लेकिन इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया, पारदर्शिता और प्रभावित लोगों की भागीदारी पर गंभीर सवाल उठे हैं।
ये सभी परियोजनाएं डीसीपीआर २०३४ के तहत एसआरए मॉडल के अनुसार पूरी की जाएंगी, जिसमें पात्रता की तारीख और पुनर्वास घरों का आकार पूर्ववत रहेगा। लेकिन मनपा ने स्पष्ट कर दिया है कि चूंकि ये जमीनें उनके स्वामित्व में हैं इसलिए नियम ३३(१०), न्न्घ्-१.१५ के अनुसार झुग्गीवासियों की सहमति जरूरी नहीं है। इन ६४ भूखंडों में से अधिकांश गोवंडी और मालाड-पूर्व जैसे पूर्वी और पश्चिमी उपनगरों में स्थित हैं। कुल मिलाकर मनपा लगभग ४ लाख वर्ग मीटर झुग्गी भूमि को पुनर्विकास के लिए निजी डेवलपर्स को सौंपना चाहती है। इच्छुक बिल्डरों के लिए २५ जून तक आवेदन आमंत्रित किए गए हैं।
सामाजिक संगठनों और स्थानीय नागरिकों ने इस निर्णय की आलोचना की है। गोवंडी के एक एनजीओ ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि हजारों परिवारों के भविष्य से जुड़ा कोई भी निर्णय उनकी भागीदारी के बिना नहीं लिया जाना चाहिए। उनका कहना है कि लोग पुनर्विकास के विरोध में नहीं हैं, लेकिन प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए।
शहरी नियोजन विशेषज्ञों ने भी सवाल किया है कि क्या डेवलपर्स के लिए यह योजना व्यावसायिक रूप से आकर्षक है, क्योंकि उन्हें सर्वे, पुनर्वास और सरकारी मकानों की जिम्मेदारी लेनी होगी। मनपा ने कहा है कि वह बेदखली में सहायता करेगी और पात्र लोगों को पुनर्वास सुनिश्चित किया जाएगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या झुग्गीवासियों की आवाज दबाकर ‘झुग्गी मुक्त मुंबई’ का सपना साकार किया जा सकता है?