सोमवार को मुंब्रा में हुए भीषण हादसे ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि लोकल यात्रियों की जिंदगी कितनी क्षणभंगुर है और रेल मंत्रालय इसके प्रति कितना लापरवाह है। मुंब्रा स्टेशन के पास जिस ‘खतरनाक मोड़’ पर यह हादसा हुआ, उसके बारे में यात्रियों और यात्री संगठनों ने बार-बार चेतावनी दी थी, लेकिन रेलवे प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। रेलवे के इस लचर प्रबंधन की कीमत सोमवार को चार बेगुनाह यात्रियों को जान देकर चुकानी पड़ी। नौ अन्य यात्री अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तेज रफ्तार लोकल के ट्रैक पर यह तीखा मोड़ बेहद खतरनाक है। इससे गुजरते समय तेज रफ्तार लोकल दोनों तरफ से जोर-जोर से हिलती रहती है। इसकी वजह से दरवाजे में लटके यात्रियों की जिंदगी कुछ पलों के लिए सचमुच अधर में अटकी रहती है। जिंदगी बचाए रखने के लिए बस दरवाजों के खंभों को पूरी ताकत से थामे रखना और एक-दूसरे का सहारा लेकर संतुलन बनाए रखना ही उनके हाथ में होता है। हालांकि, यात्रियों को पता है कि चंद पलों का यह सफर जानलेवा हो सकता है, लेकिन रेलवे प्रशासन को इसकी कोई चिंता नहीं थी। अब सोमवार को एक ही जगह चार यात्रियों की जान जाने के बाद रेलवे की नींद खुली है, लेकिन क्या उन चारों की जिंदगी फिर से लौट आएगी? क्या उनके उजड़े हुए परिवार संभल पाएंगे?
लोकल यात्रियों को रामभरोसे
छोड़कर और सारा दोष बढ़ती भीड़ के मत्थे मढ़कर हाथ झटकने की नीति रेलवे प्रशासन की रही है। मुंबई में लोकल यात्रियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है और इसने लोकल सेवा पर असहनीय दबाव डाला है, रेलवे की तकनीकी और अन्य सीमाएं हैं, चलिए इसे स्वीकार भी कर लें, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि रेलवे यात्रियों को भगवान भरोसे छोड़कर, ‘अपनी जान का ख्याल खुद रखो’ यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया जाए। एक तरफ इस बात का बड़े गर्व से दावा करना कि लोकल सेवा ‘मुंबई की लाइफलाइन’ है और दूसरी तरफ इस उपनगरीय रेल सेवा से होनेवाली मृत्यु दर ३८.०८ प्रतिशत क्यों है? इस भयावह सच्चाई से आंखें मूंद लेना आखिर क्या दर्शाता है? पिछले बीस सालों में उपनगरीय यात्रा के दौरान मरनेवाले ५१,८०२ यात्री रेलवे की लापरवाह नीति के शिकार हैं। पिछले १५ महीनों में ही ठाणे-कसारा और बदलापुर रूट पर ६६३ यात्रियों की मौत हो चुकी है। इनमें से ज्यादातर मौतें ट्रेन से गिरने की वजह से हुई हैं। मुंबई में हर दिन कम से कम सात-आठ उपनगरीय यात्री यात्रा करते समय मरते हैं। आम यात्रियों के लिए लोकल यात्रा ‘मौत का कुआं’ बन गई है। मुंबई में उपनगरीय यात्रियों की बढ़ती संख्या और ‘एसी’ लोकल ट्रेनों की सुविधाओं का
ढोल पीटने वाले
रेल मंत्रालय के ‘रावसाहेब’ और ‘रील मिनिस्टर’ क्या इस भयावह सच्चाई से वाकिफ भी हैं? वाकिफ होने की बात छोड़िए, क्या रेल मंत्री को सोमवार को मुंब्रा में हुई भयानक दुर्घटना के प्रति सामान्य सहानुभूति व्यक्त करने का शिष्टाचार भी नहीं दिखाना चाहिए? अगर रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ही ‘रेल मंत्रालय ने एक पर्चा जारी किया है, इस मुद्दे पर ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है’ जैसे लापरवाही भरा बयान देते हैं तो यह कैसे कहा जा सकता है कि रेल यात्रियों की जान उनके हाथों में सुरक्षित है? वैष्णव साहब, मुंब्रा दुर्घटना में और कितने निर्दोष लोगों की मौत की दरकार है, ताकि आपको ‘बोलने की जरूरत’ महसूस हो? ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाने रे’ गांधीजी का बहुत प्रिय भजन था। इस पंक्ति का अर्थ है ‘जो दूसरों की पीड़ा को समझता और जानता है, वही सच्चा वैष्णव है।’ वर्तमान में रेल विभाग की कमान संभालने वाले ‘वैष्णव’ को न तो मुंबईकर उपनगरीय रेल यात्रियों की पीड़ा व तकलीफों की कोई परवाह है और न ही मुंब्रा दुर्घटना में हुई दुर्भाग्यपूर्ण मौतों के लिए संवेदना व्यक्त करने का शिष्टाचार। वे चाहे जितना भी हाथ झटक लें, यह रेलवे की ही गलती है, रेलवे का ही पाप है कि मुंबई में लोकल यात्रा बेहद असुरक्षित बन गई है और जिसके चलते मुंब्रा दुर्घटना में लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं। आपको देर-सवेर इसका प्रायश्चित करना ही होगा।