पिता होता है साया कुटुंब का,
सुख का स्रोत, भरोसे की धूप,
दरख्त से वे छांव बन जाते,
जिसमें खिलता हर एक रूप।
तन-मन सब कुछ अर्पित करके,
गढ़ते हैं सपनों का आंगन,
जीते जी पहचानो उनका मोल,
खुदा का दूजा रूप पिता है।
बिन कहे जो सह ले पीड़ा,
वो कठिन तपस्या का स्वरूप,
मौन रहकर सब दे जाते,
फिर भी रहे मूर्त स्वरूप।
बचपन में हम नहीं समझते,
क्या-क्या सहते वो चुपचाप,
जब खुद बने हम उस जैसे,
तब समझे त्याग का वो ताप।
जीवन का वो उजला चेहरा,
हर दुःख में बन जाए दीया,
जीते जी पहचानो उनका मोल,
खुदा का दूजा रूप पिता है!
-मुनीष भाटिया
मोहाली