अजय भट्टाचार्य
मेरे एक मित्र पुराने स्वयंसेवक हैं। उन्होंने आजकल कुकुरमुत्तों की तरह उग आए नकली स्वयंसेवकों पर लिखा है कि इन दिनों जिस गली में घुसो, वहां एक-न-एक सज्जन अवश्य मिलेंगे, जो गर्व से सीना तानकर कहते हैं कि हम तो संघ के पुराने स्वयंसेवक हैं! पूछो, ‘कब से?’ तो उत्तर मिलेगा— ‘भैया, जब से होश संभाला, तब से ही शाखा जाते रहे।’
अब इसमें होश किसने कब संभाला, यह पूछने का साहस कोई नहीं करता, क्योंकि इन दिनों ‘होश’ संभालना नहीं, ‘होशियारी’ दिखाना अधिक महत्वपूर्ण है। २०१४ के बाद जैसे देश में विकास की रेल दौड़ी, वैसे ही ‘स्वयंसेवक निर्माण उद्योग’ भी पनप उठा। बस अपना व्हॉट्सऐप डीपी बदलिए, कहीं एक भगवा झंडा लगा दीजिए, दो-चार ट्वीट कर दीजिए और फिर मंचों पर जाकर चिल्लाइए— ‘हम तो संघ से निकले हुए हैं!’ संघ को अब कुछ चतुर सुजान लोगों ने सत्ता में पहुंचने की सीढ़ी बना डाला है। कुछ लोग तो अपने को ‘गर्भकाल से स्वयंसेवक’ बताने लगे हैं! हद तो तब हो गई, जब एक जनाब ने मंच से ही घोषणा कर दी— ‘हम पिछले जन्म में शाखाप्रमुख थे!’ पूछो प्रमाण? तो जवाब मिलेगा— ‘यह तो श्रद्धा की बात है, संघ भावना से समझिए!’ कुछ ‘संघनिष्ठ’ ऐसे भी हैं, जो बिना कभी शाखा देखे ही ‘राष्ट्रीय विचारक’ बन चुके हैं। जैसे ही चुनाव आता है, वे टीवी चैनलों पर संघ के ‘प्रवक्ता’ बन जाते हैं और जैसे ही सरकार बनती है, वे दिल्ली के किसी कोने में मंत्रालय की गंध सूंघने लगते हैं। ऐसे नकली स्वयंसेवकों की पहचान भी अलग है। ये वाणी से बहुत संघी हैं, लेकिन जीवन में पाश्चात्य विलासिता, ब्रांडेड दिखावा और सरकारी नियुक्तियों में इतनी गहरी रुचि रखते हैं कि इन्हें देखकर नेता भी पानी भरें। कभी गुमनाम रहनेवाला स्वयंसेवक अब फेसबुक पर लाइव आता है, इंस्टाग्राम स्टोरी में शाखा की फोटो डालता है और ट्विटर पर राष्ट्रवाद बेचता है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सिर्फ संघ की शाखा में नहीं, सत्ता की छाया में खिलते हैं। इनका ‘संघ-समर्पण’ सत्ता में भागीदारी तक सीमित है और ‘राष्ट्र-सेवा’ की परिभाषा इनके लिए सिर्फ सत्ता-सुगंध तक पहुंचने का मार्ग है। अब संघ भी असमंजस में है कि इन नए स्वयंसेवकों से वैâसे निपटा जाए जो जन्मजात भी हैं, पुनर्जन्मीय भी, और अगले जन्म के मंत्री भी!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)