राजेश विक्रांत
वरिष्ठ टीवी पत्रकार संजय सिंह ‘निर्जल’ का पहला उपन्यास “घुन्ना” एकदम प्रोफेशनल तरीके से लिखा गया है। यह उन किरदारों की कहानी है, जो अपनी नाराज़गी और शिकवे को मन में छिपाए रखते हैं, लेकिन सही मौके पर घात करने से नहीं चूकते। यहां हर रिश्ता आर्थिक, सामाजिक और पारंपरिक तानों-बानों में उलझा है। हर व्यक्ति अपने भीतर घुन्ना पालकर दूसरों के ख़िलाफ़ अपनी चाल चलने की ताक में रहता है। यह उपन्यास मानव स्वभाव की गहराइयों और रिश्तों की जटिलता को बयां करता है।
‘निर्जल’ ने घुन्ना में बड़े दिलचस्प किरदार सृजित किए हैं। हाइवे के किनारे नए नए बने मंकी मॉल से कहानी शुरू होती है, जहां पीपल गांव का देवेंद्र पांडे उर्फ टीटू मोटर साइकिल से विंडो शॉपिंग के लिए आया है, वापसी में पार्किंग में उसकी मुठभेड़ देहरा गांव के इंद्रजीत नारायण सिंह से होती है। बात-बात में इंद्रजीत को अपनी बुलेट 30 हजार रुपए में देबू पेंटर को दे देनी पड़ती है। खिसियाया इंद्रजीत टीटू को ताना मारता है कि सात पीढ़ियों से तेरे बाप-दादा एक पीपल का पेड़ लगा नहीं पाए और तुम्हारे घर की मां-बहनें चली आती हैं हमारे गांव पीपल पूजने, तू लगा पीपल अपने गांव में। बस यहीं से कहानी शुरू हो जाती है।
और उसके सूत्र जुड़ते हैं ब्राह्मणों के पीपल गांव से। टीटू, उनके पिता गोभी पांडे, मां मालती, बहन अंजलि, टीटू का जिगरी दोस्त मंटू/ बांचू। टीटू की बहन मामा डीडी उर्फ दुष्यंत दुबे के गांव के शेखर से इश्क करने लगती है। पीपल गांव के प्रधान गंगा सहाय, बुधई पांडे, गौरी चाचा इलाके के विधायक गोवर्धन शरण, विशंभर सेठ, नंदलाल गुप्ता आदि चरित्रों के जरिए निर्जल ने 1857 के गदर की चर्चा, भारतीय समाज की समकालीन विसंगतियां, आपसी रिश्तों में स्वार्थ, चुनाव में टिकटों का खेल, प्यार मोहब्बत की तरंग, महिला सशक्तिकरण, बच्चों की शादी की चिंता, जमीनी विवाद पुलिस पर राजनीति का दबाव, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की असलियत आदि को कहानी के सूत्र में पिरोया है। इसमें अंजलि और शेखर का इश्क है। उपन्यास में महिला सशक्तिकरण की प्रतीक सविता कुमारी का बेहतरीन तरीके से चरित्र चित्रण हुआ है। एक रोचक प्रसंग है कि टीटू जब बिना टिकट जेल चला जाता है तो उसके बाद हालात दिलचस्प रूप से बदलते हैं। जेल से वापसी में वह गांव फूलों से सजी गाड़ी में आता है। गांव वाले उसका स्वागत करते हैं घुन्ना में पीपल गांव का इतिहास है, तिलकिया नदी है, गोभी आलू की रसेदार सब्जी और पूड़ी है। पीपल की पूजा खैनी, व्रत सब गांव के साथ-साथ चलते हैं। अंत भला तो सब भला की तर्ज पर जब परिवार अंजलि की शादी की कोशिश करता है तो शेखर उसके जीवन में फिर आ जाता है।
उपन्यास का अंत भी बेहद मार्मिक है- टीटू मिट्टी में सना घुटनों के बल बैठ गया, उसकी आंखों से बहता आंसू गालों से होते हुए शिशु पौधे की पत्तियों पर टप टप कर गिरने लगा। पत्तियों में टीटू के आंसुओं को लपकने की होड़ लग गई थी। वो इधर से उधर इस तरह से कुलांचे मार रही थी, जैसे वो उछलकर एक बार में ही टीटू की आंखों से बहते आंसू को सोख लेना चाहती हैं….
टीटू भरे गले से बुदबुदाने लगा “बाबा का आशीर्वाद मिल गया, मन्नत पूरी हो गई…”
सारे मिथक टूटकर बिखर चुके थे, नया जनम मिला था, पिता को भी… पीपल को भी…”
200 पृष्ठों के घुन्ना को श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इसकी कीमत 399 रुपए है।