मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनारवि कैसे हो सकता है?

रवि कैसे हो सकता है?

तम-अनी-मध्य में रुंध जाए वह, रवि कैसे हो सकता है?
नियमित निष्ठा में बंध जाए वह, कवि कैसे हो सकता है?
विरुदावलियां गा-गाकर दीनों का पाप नहीं लूंगा;
सबलों का चारण बन करके कविता का शाप नहीं लूंगा।
भय खाकर कैसे छिप जाऊं मैं दोपहरी के सविता का!
मैं भी सर्जक हो जाऊं क्या अब चारणवादी कविता का!
वही आवरण मेरा है मैं जैसा दिखता आया हूं;
परिवर्तन रंच नहीं होगा मैं जैसा लिखता आया हूं।
अंगार दबाकर बैठा है जो शांत, सुशीतल दिखता है;
अति रुष्ट सभी हो जाते हैं कवि कालजयी जब लिखता है;
दया और नय-शील-धर्म का मन से मित्र! पुजारी हूं;
यह रचना रुचिकर नहीं जिन्हें मैं उनका भी आभारी हूं।
राम धीरज शर्मा
बहराइच, उत्तर प्रदेश

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