मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख : बाबा रामदेव और आयुर्वेद का ‘दर्शन’!

शिलालेख : बाबा रामदेव और आयुर्वेद का ‘दर्शन’!

ह्रदयनारायण दीक्षित

लखनऊ

आनंदपूर्ण जीवन मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इसके लिए शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य जरूरी है। स्वस्थ जीवन और दीर्घायु सबकी अभिलाषा है। वैदिक ऋषि सौ वर्ष के स्वस्थ जीवन के लिए स्तुतियां करते थे। प्राचीन काल का जीवन प्रकृति रस से भरपूर था। लेकिन आधुनिक जीवन शैली के कारण रोग बढ़ रहे हैं। रोग रहित जीवन और स्वस्थ जीवन में अंतर है। रोगी शरीर में अंतर्संगीत नहीं होता। स्वस्थ जीवन और दीर्घायु में आनंदपूर्णता है। भारत में अनेक चिकित्सा पद्धतियां हैं। आयुर्वेद आचार आधारित प्राचीन आयुर्विज्ञान है और एलोपैथी उपचार आधारित चिकित्सा विज्ञान। होम्योपैथी यूनानी सिद्धा आदि पद्धतियां भी हैं। स्वस्थ जीवन के लिए सब उपयोगी हैं। लेकिन यहां योग गुरु रामदेव पर आयुर्वेद से भिन्न चिकित्सा प्रणाली की आलोचना के आरोप हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा दायर याचिका में सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया है। कोर्ट ने पहले भी इसे गलत बताया था।
शरीर रहस्यपूर्ण संरचना है। इसकी आंतरिक गतिविधि का बड़ा भाग जान लिया गया है। चिकित्सा विज्ञानियों को इसका श्रेय है। आयुर्वेद का जन्म लगभग ४,००० वर्ष ई. पूर्व ऋग्वेद के रचनाकाल में हुआ और विकास अथर्ववेद (३००० ई-२००० ई. पूर्व) में। मैकडनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ में लिखा है, ‘भारतीयों की रुचि शरीर रचना संबंधी प्रश्नों की ओर बहुत पहले से थी। अथर्ववेद में अनेक अंगों के विवरण हैं और यह गणना सुव्यवस्थित है।’ अथर्वेद आयुर्वेद का वेद है। इन लेखकों ने आयुर्वेद के दो आचार्यों चरक व सुश्रुत का उल्लेख किया है। अथर्ववेद में सैकड़ों रोगों व औषधियों का उल्लेख है। यूरोप में एलोपैथी का विकास १७वीं सदी के आसपास हुआ। एच.एस. मेन ने लिखा है, ‘भारतीयों ने चिकित्सा शास्त्र का विकास स्वतंत्र रूप से किया। पाणिनि के व्याकरण में विशेष रोगों के नाम हैं। मालूम होता है कि चिकित्सा शास्त्र का विकास उनके पहले ३०० ई. पूर्व हो चुका था। अरब चिकित्सा प्रणाली की आधारशिला संस्कृत ग्रंथों के अनुवादों पर रखी गई। यूरोपीय चिकित्सा शास्त्र का आधार १७वीं सदी तक अरब चिकित्सा शास्त्र ही था।’ एलोपैथी सुव्यवस्थित आधुनिक चिकित्सा पद्धति है। जर्मन चिकित्सक डॉ. सैमुअल हैनीमैन ने एलोपैथी रखा था। इसका अर्थ भिन्न मार्ग है। इसे पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान/आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी कहते हैं। इसका चिकित्सातंत्र बड़ा है और शोध का दायरा भी। इसने करोड़ों लोगों को पुनर्जीवन दिया है। सर्जरी, रेडिएशन, सीटी स्कैन, एम.आर.आई. सहित तमाम घटक विस्मयकारी हैं। कोरोना महामारी के दौरान जीवन की परवाह त्यागते हुए उपचार करनेवाले वैज्ञानिक, चिकित्सक व पैरा मेडिकल स्टाफ प्रशंसनीय रहे हैं।
आयुर्वेद आयु का विज्ञान है। यह चिकित्सा विज्ञान होने के साथ स्वस्थ रहने की जीवन शैली भी है। चरक संहिता आयुर्वेद का प्रतिष्ठित ग्रंथ है। संहिता की शुरुआत जीवन सूत्रों से होती है। बताते हैं कि यहां बताए गए स्वस्थव्रत का पालन करनेवाले १०० वर्ष की स्वस्थ आयु पाते हैं। आरोग्य सुख है और रोग दुख। दुख का कारण रोग है। फिर रोगों का कारण बताते हैं, कोरोना महामारी के समय रोग निरोधक शक्ति की चर्चा थी। चिकित्सा विज्ञान में इसकी प्रभावी दवा नहीं है। आयुर्वेद में गिलोय सहित अनेक औषधियां रोग निरोधक शक्ति बढ़ाने वाली कही जाती थीं। अश्वगंधा, जटामांसी, गुग्गुल जैसी औषधियों का प्रयोग बढ़ा। चरक संहिता में सैकड़ों रोगों के उपचार हैं। अवसाद की भी औषधि है। आयुर्वेद में शरीर की रोग निरोधक क्षमता बढ़ाने की औषधियां हैं। माना जाता है कि इस क्षमता को बढ़ाकर रोगों को रोका जा सकता है। एलोपैथी में शरीर का तापमान बढ़ने पर पैरासीटामाल दी जाती है। एंटीबायटिक भी देते हैं। इन औषधियों का बुरा प्रभाव होता है। पर ऐसी छोटी बातों से कोई पद्धति हेय या श्रेय नहीं हो जाती। रोग मुक्ति के लिए औषधियों की उपयोगिता है। स्टरायड खतरनाक दवा है। संभवत: इसका प्रभावी विकल्प नहीं है। ऐसे मामलों में शोध की आवश्यकता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में निरंतर शोध चलते हैं। अभी भी चल रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन संसूचित रहता है। पहले वैज्ञानिक शोध और फिर किन्हीं जीवों पर प्रभाव का आकलन। फिर मनुष्यों पर दवा के प्रभाव का आकलन। यह अच्छी बात है। लगातार शोध से चिकित्सा विज्ञान समृद्ध होता है। लेकिन आयुर्वेद में शोध की आत्मनिर्भर व्यवस्था नहीं है। यों भारत में आयुर्वेद का सम्मान बढ़ा है। ज्ञान विज्ञान क्षेत्रीय नहीं होते। वे शोध सिद्धि के बाद सार्वजनिक संपदा बन जाते हैं। आयुर्वेद आयु का वेद है। इसमें भोजन, पाचन, श्वसन, चिंतन, तनाव, स्मृति और निद्रा भी स्वस्थ रहने के विषय हैं। आयुर्वेद का प्रभाव भी अंतर्राष्ट्रीय हो चुका है लेकिन इसमें भी शोध की आवश्यकता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और आयुर्वेद सहित अन्य चिकित्सा प्रणालियों में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। सबका उद्देश्य मानवता का स्वास्थ्य है। सभी पद्धतियों को परस्पर ज्ञान का आदान प्रदान करना चाहिए। योग गुरु सहित किसी भी महानुभाव को इस या उस चिकित्सा प्रणाली की आलोचना का कोई अधिकार नहीं है। ज्ञान अपना पराया नहीं होता।
सभी पद्धतियों का लक्ष्य एक है। सबकी अपनी विशेषता है। सभी विज्ञान हैं। लेकिन सीमा भी है। डायबिटीज जैसी बीमारियों को खत्म करने की कोई दवा नहीं है। मस्तिष्क की गतिविधि का बड़ा भाग अज्ञेय है। मानव मस्तिष्क जटिल संरचना है। सुख, दुख, ज्ञान व बुद्धि की अनुभूति मस्तिष्क क्षेत्र की गतिविधि से होती है। सुनते हैं कि प्रार्थना का प्रभाव गहन होता है। अवसाद का जन्म और विकास मस्तिष्क में होता है। विषाद का भी। उल्लास और प्रसाद प्रसन्नता देते हैं। इसका उल्टा भी हो सकता है। संभव है कि प्रसन्नता से उल्लास आता हो। स्वप्नों का केंद्र भी मस्तिष्क है। सिगमंड फ्रायड ने ‘साइको एनालिसिस’ लिखी थी। फ्रायड का ‘लिविडो’-कामना क्षेत्र विचारणीय है। फ्रायड ने सृजन कार्य को भी लिविडो से जोड़ा था। लेकिन पतंजलि के योग सूत्रों में चित्त की पांच प्रवृत्तियों को ही सुख-दुख का कारण बताया गया है। अथर्ववेद के काम सूक्त में कविता को काम की पुत्री बताया गया है। सभी प्रणालियों को मिलाकर शोध की जरूरत है। सभी पद्धतियों के विशेषज्ञों में सतत संवाद चलते रहना चाहिए। प्राचीनता और आधुनिकता का संगम राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में फलप्रद होता है। निंदा आलोचना का कोई औचित्य नहीं है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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