मुख्यपृष्ठधर्म विशेषजगन्नाथपुरी : बहन-भाई का अनूठा मंदिर

जगन्नाथपुरी : बहन-भाई का अनूठा मंदिर

शीतल अवस्थी

उड़ीसा के पुरी को भगवान जगन्नाथ का धाम कहा जाता है। हिंदुओं की आस्था का केंद्र है भगवान जगन्नाथ का मंदिर। १२वीं शताब्दी में निर्मित यह प्राचीन मंदिर चार धामों में से एक धाम है। यह भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), बलभद्र व उनकी बहन सुभद्रा को समर्पित है।
हिंदुस्थान की पूर्वी समुद्र तट पर स्थित उड़ीसा राज्य प्राचीन कलाकृति, भव्य मंदिरों, मनोरम हस्तशिल्प और विस्तृत फूल और फलों से परिपूर्ण है। यहां की समृद्ध वनसंपदा, रमणीय हृद, आकर्षक सामुद्रिक विश्राम स्थल और चमत्कारी जलप्रपात पर्यटकों के लिए सदैव आनंददायक रहे हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर और राजधानी भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर को उड़ीसा का स्वर्ण त्रिभुज माना जाता है। श्री जगन्नाथ मंदिर का निर्माण १२वीं शताब्दी में गंग वंश के प्रतापी राजा अनंगभीम देव के द्वारा हुआ था। लगभग ८ सौ साल पुराना यह मंदिर कलिंग स्थापत्य कला और शिल्पकला का बेजोड़ उदाहरण है। इसकी ऊंचाई २१४ फुट और इसका आकार पंचरथ जैसा है। इस मंदिर के चारों तरफ दीवारें, जिसे मेघनाद प्राचीर कहते हैं, की लंबाई ६६० फुट और ऊंचाई २० फुट है। श्री मंदिर के चार भाग हैं- विमान, जगमोहन, नाट्यमंडप और भोगमंडप। इस स्थान पर अनगिनत भक्त शांति की खोज में पहुंचते हैं, जो जगन्नाथ मंदिर के त्रय देवताओं द्वारा प्रदान की जाती है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। मंदिर में मुख्यत: तीन विग्रह हैं, बाएं ओर बलभद्रजी, बीच में सुभद्राजी और दाहिने ओर श्री जगन्नाथजी। ये विग्रह नीम के दारु (लकड़ी) से बने हैं। यानी ये सभी मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। जिस साल मलमास या दो आषाढ़ आते हैं, उसी साल इनका नवकलेवर होता है यानी नए विग्रह बनाए जाते हैं। इस साल सौभाग्य से यह शुभ अवसर आया था। आम तौर पर यह नवकलेवर १२ साल के अंतराल में होता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा राजा इंद्रद्युम्न ने की थी। जगन्नाथजी की सारी यात्राओं में से रथयात्रा सर्वश्रेष्ठ है। यह यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीय तिथि में होती है। श्री जगन्नाथजी, बड़े भाई श्री बलभद्रजी और बहन सुभद्रा देवी के साथ सुसज्जित तीन रथों पर बैठकर श्री गुंडिचा मंदिर को जाती है। श्री जगन्नाथजी के रथ को नंदिघोष, श्री बलभद्रजी के रथ को तालध्वज और श्री सुभद्राजी के रथ को देवदलन कहा जाता है। यह एक विस्तृत समारोह है। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ त्रिलोक के स्वामी हैं, उनकी भक्ति से भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है, लेकिन खुद इनके हाथ-पांव नहीं हैं। तीनों प्रतिमाओं का समान रूप से हाथ-पांव नहीं होना अपने आप में एक अद्भुत घटना का प्रमाण है। कहा जाता है कि मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में कहा था कि समुद्र तट पर जाओ, वहां तुम्हें एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा, उससे मेरी प्रतिमा बनाकर स्थापित करो। राजा ने वैसा ही किया। तब देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बुजुर्ग मूर्तिकार के रूप में राजा के सामने आए और एक महीने में मूर्ति बनाने का समय मांगा। उन्होंने शर्त रखी कि जब तक वह खुद आकर राजा को मूर्तियां नहीं सौंपते, तब तक वह एक कमरे में ही रहेंगे और वहां कोई नहीं आएगा। राजा ने शर्त मान ली, लेकिन एक महीना पूरा होने से कुछ दिनों पहले मूर्तिकार के कमरे से आवाजें आनी बंद हो गईं, तब राजा को चिंता होने लगी कि उस बुजुर्ग को कुछ हो तो नहीं गया। इसी आशंका में उन्होंने मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खुलावा दिया। अर्धनिर्मित मूर्तियों के शिवाय कमरे में कोई नहीं था, मूर्तियों के हाथ-पांव नहीं थे। राजा को अपनी भूल पर पछतावा हुआ, तभी आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से ही हुआ है। इन्हीं मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो। तब से जगन्नाथजी इसी रूप में पूजे जाने लगे। विश्वकर्मा चाहते तो एक मूर्ति पूरी होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण कर सकते थे, लेकिन उन्होंने सभी मूर्तियों का काम एक-साथ शुरू किया। इसके पीछे भी एक कथा है, बताते हैं कि एक बार देवकी और रुक्मिणी, श्रीकृष्ण की अन्य रानियों को राधा-कृष्ण की कथा सुना रही थीं। उस समय छिपकर यह कथा सुन रहे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा इतने विभोर हो गए कि मूर्तिवत वहीं पर खड़े रह गए। वहां से गुजर रहे देवर्षि नारद ने उनका यह अनोखा रूप देखा, उन्हें ऐसा लगा जैसे तीनों के हाथ-पांव ही न हों। तब नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि आपका जो रूप अभी-अभी मैंने देखा है, मैं चाहता हूं कि वह भक्तों को भी दिखे। श्रीकृष्ण ने नारदजी को वरदान दिया कि वे इस रूप में भी पूजे जाएंगे। इसी कारण श्रीजगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के हाथ-पांव नहीं हैं।

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