मुख्यपृष्ठनए समाचारसाहित्य शलाका: छायावादी काव्यधारा के मुकुट: पंडित मुकुटधर पांडेय

साहित्य शलाका: छायावादी काव्यधारा के मुकुट: पंडित मुकुटधर पांडेय

डॉ. दयानंद तिवारी

पंडित मुकुटधर पांडेय का जन्म छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव बालपुर में ३० सितंबर, १८९५ को हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। १९०९ में १४ वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से निकलनेवाली पत्रिका ‘स्वदेश बांधव’ में प्रकाशित हुई एवं १९१९ में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ का प्रकाशन हुआ। इतनी कम उम्र में अपनी प्रतिभा और काव्य कौशल को इस तरह से प्रस्तुत करनेवाले पं. मुकुटधर पांडेय अपने अध्ययन के संबंध में स्वयं कहते हैं- ‘सन् १९१५ में प्रयाग विश्ववविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण होकर मैं एक महाविद्यालय में भर्ती हुआ पर मेरी पढ़ाई आगे नहीं बढ़ पाई। मैंने हिंदी, अरबी, बांगला, उड़िया साहित्य का अध्ययन किसी विद्यालय या महाविद्यालय में नहीं किया। घर पर ही मैंने उनका अनुशीलन किया और उसमें थोड़ी बहुत गति प्राप्त की।’ महानदी की प्राकृतिक सुषमा से संपन्न तट और सहज ग्राम्य जीवन का रस लेते हुए कवि ने अपनी लेखनी को भी इन्हीं रंगों में संजोया-
कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।
कलकलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप।
तुझे देखकर शैशव की है, स्मृतियां उर में उठती जाग।
लेता है किशोर काल का अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग।
हिंदी साहित्य को जानने-समझने वालों के लिए ‘छायावाद’ एक ऐसा विषय रहा है, जिसकी परिभाषा एवं अर्थ पर आरंभ से आज तक अनेक साहित्य मनीषियों एवं साहित्यानुरागियों नें अपनी लेखनी चलाई है एवं लगातार लिखते हुए इसे पुष्ट करने के साथ ही इसे द्विवेदी युग के बाद से पुष्पित व पल्लवित किया है। छायावादी विद्वानों का मानना है कि १९१८ में प्रकाशित जयशंकर प्रसाद की कविता संग्रह ‘झरना’ प्रथम छायावादी संग्रह था। इसके प्रकाशन के साथ ही हिंदी साहित्य जगत में द्विवेदीयुगीन भूमि पर हिंदी पद्य की शैली में बदलाव दृष्टिगोचर होने लगे थे। देखते ही देखते इस नई शैली की अविरल धारा साहित्य प्रेमियों के हृदय में स्थान पा गई। इस नई शैली के आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा थे, पंरतु कहा यह जाता है कि इस नई शैली को साहित्य जगत में परिभाषित करने एवं नामकरण करने का श्रेय पं. मुकुटधर पांडेय को जाता है। १९१८ से लोकप्रिय हो चुकी इस शैली के संबंध में १९२० में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्री शारदा’ में जब पं. मुकुटधर पांडेय की लेखमाला का प्रकाशन आरंभ हुआ, तब इस पर राष्ट्रव्यापी विमर्श हुआ और ‘छायावाद’ ने अपना सम्मान स्थापित किया।
‘छायावाद’ पर प्रकाशित लेखमाला व ‘छायावाद’ के संबंध में स्वयं पं. मुकुटधर पांडेय कहते हैं- ‘१९२० में ‘छायावाद’ का नामकरण हुआ और जबलपुर की ‘श्री शारदा’ में हिंदी में छायावाद शीर्षक से मेरी लेखमाला निकली। इसके पहले १९१८ में ‘प्रसाद जी’ का ‘झरना’ प्रकाशित हो चुका था, जो छायावादी कविताओं का प्रथम संग्रह था।
हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष आचार्य शुक्‍ल ने रोमांटिसिज्म के पर्याय के रूप में जिसे स्‍वच्‍छंदतावाद, कहा था, वह ‘छायावाद’ का अग्रगामी था रोमांटिसिज्म जिसे हरफोर्ड ने हाईटेनिंग ऑफ सेंसिबिलिटी भावोत्‍कर्ष कहा था, वही ‘छायावाद’ के रूप में परिणित हुआ था उसकी मुख्‍य विशेषताएं हैं, मानवतावाद सौंदर्यवाद, रहस्‍यवाद, रोमांटिक निराशावाद। ‘छायावाद’ की कुछ कविताओं में एक ऐसी मर्मभेदी करुण ध्‍वनि पाई जाती है, जो करुणा होने पर भी अत्‍यंत मधुर है। वह एक करुण व्‍यथा की कथा है, जो मनुष्‍य की साधारण समझ के बाहर की बात है। ‘छायावाद’ के सौंदर्य बोध और कल्पना में पूर्ववर्ती कविताओं से बड़ा अंतर था। छायावाद द्वारा द्विवेदीयुगीन काव्यधारा का एक नई दिशा की ओर व्यपवर्तन घटित हुआ था।
छायावादी काव्य एवं ‘छायावाद’ शब्द के प्रयोग पर तद्समय साहित्य जगत में हो रही चर्चाओं में किंचित विरोध के स्वर मुखरित होने लगे थे, जिसका कारण मूलत: निराला एवं उनके अनुयायियों के द्वारा छंदों का अंग-भंग किया जाना था, किंतु यह सृजन के पूर्व का हो-हल्ला था। आगे उसी लेख में पं. मुकुटधर पांडेय कहते हैं कि ‘द्विवेदी जी ने सुकवि किंकर के छद्मनाम से ‘सरस्वती’ में छायावाद की कठोर आलोचना की। उनका व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष था, जिस कविता पर किसी अन्य कविता की छाया पड़ती हो, उसे छायावाद कहा जाता है, तब मेरा माथा ठनका। लोग छाया शब्द का लाभ उठाकर छायावाद की छीछालेदर कर रहे थे। छायावादी कवियों की एक बाढ़ सी आ गई। मैंने ‘माधुरी’ में एक लेख लिखकर नई शैली के लिए ‘छायावाद’ शब्द का प्रयोग नहीं करने का आग्रह किया, पर उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, जो शब्द चल पड़ा, सो चल पड़ा।
छायावाद हिंदी साहित्य में स्थापित हो गया और इसे ‘छायावाद’ सिद्ध करने में पं. मुकुटधर पांडेय के ‘श्री शारदा’ में प्रकाशित लेखमाला की अहम भूमिका रही। उनके इस लेखमाला के संबंध में प्रो. ईश्वरी शरण पांडेय कहते हैं, ‘श्री पांडेय की इस लेखमाला के प्रत्येक निबंध छायावाद पर लिखे गए बीसियों तथाकथित मौलिक शोधात्मक प्रबंध ग्रंथों से ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दोनों दृष्टियों से कहीं अधिक स्थायी महत्व के हैं। यह लेखमाला हिंदी साहित्य की ‘दीप्त-धरोहर’ है। पं. मुकुटधर पांडेय की सरस्वती में प्रकाशित कविता ‘कुकरी के प्रति’ को प्रथम छायावादी कविता माना गया एवं समस्य हिंदी साहित्य जगत ने इसे स्वीकार भी किया। ‘कुकरी के प्रति’ पं. मुकुटधर पांडेय की ऐसी कविता थी, जिसमें छायावाद के सभी तत्व समाहित थे, इस कविता के संबंध में डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने रायगढ़ में कहा था- ‘कुकरी में तो भारत वर्ष की सारी संवेदना की परंपरा निहित है…’
अबाध गति से देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में लगातार लिखते हुए पं. मुकुटधर पांडेय ने हिंदी पद्य के साथ-साथ हिंदी गद्य पर भी अपना अहम योगदान दिया। हिंदी जगत में योगदान के लिए इन्हें विभिन्न अलंकरण एवं सम्मान प्रदान किए गए। भारत सरकार द्वारा भी इन्हें ‘पद्मश्री’ का अलंकरण प्रदान किया गया। पं. रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें मानद डी. लिट की उपाधि भी प्रदान की गई।
पं. मुकुटधर पांडेय की रचनाशैली पर डॉ. सुरेश गौतम कहते हैं, ‘इनके काव्य में मानव प्रेम, प्रकृति सौंदर्य, करुणाजनित सहानुभूति, दुखवाद, मानवीकरण, संयोग-वियोग, अव्यक्त सत्ता के प्रति जिज्ञासा और गीतात्मकता की प्रधानता रही है। कमोबेश इनके सभी गीत संक्षिप्त एवं छायावादी शैली का पूर्वाभास हैं। छायावाद के कल्पना वैभव अट्टालिका का पहला द्वार मुकुटधर पांडेय हैं। इनकी गीत-पदचाप छायावादी गोली का सौंदर्य है, जिनकी प्रतीतियों ने कालांतर में ऐतिहासिक यात्रा करते हुए छायावाद की संज्ञा प्राप्त की।’
अपनी रचनाओं के संबंध में स्वयं पं. मुकुटधर पांडेय कहते हैं- ‘मेरी रचनाओं में चाहे लोग जो भी खोज लें परंतु वे विशुद्ध रूप से मेरी आंतरिक सहज अभिव्यक्ति मात्र है। मैंने कुछ अधिक लिखा नहीं, केवल कुछ स्फुट कविताएं लिखी हैं। उनमें न तो कल्पना की ऊंची उड़ान है न विचारों की उलझन, न भावों की दुरूहता। उनमें उर्दू की चीजों की तरह चुलबुलापन या बांकपन भी नहीं। वह सहज-सरल उद््गार मात्र हैं। पर हम लोगों का महत्व अब केवल ऐतिहासिक दृष्टि से है। आजकल हिंदी में बड़े-बड़े कवि हैं, उनके सम्मुख हम नगण्य हैं।’
९० वर्ष की उम्र तक हिंदी साहित्य के क्षेत्र में छायावादी परिवर्तन को स्थापित करा देनेवाले तेजोमय चिरयुवा का निधन ६ नवंबर, १९९५ में रायपुर में लंबी बीमारी के बाद हो गया। उन्होंने स्वयं ही अपनी एक कविता में महानदी से अनुरोध करते हुए कहा था कि ‘हे महानदी तू अपनी ममतामयी गोद में मुझको अंतिम विश्राम देना, तब मैं मृत्यु-पर्व का भरपूर सुख लूटुंगा-
चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर,
प्राण प्रतीक्षारत लूटेंगे, मृत्यु-पर्व का सुख भरपूर।
‘कुकरी के प्रति’ के सर्जक और ‘छायावाद’ के प्रवर्तक संत, ऋषि पं. मुकुटधर पांडेय हिंदी साहित्य जगत में दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में सदैव प्रकाशमान रहेंगे एवं नवसृजनोन्मेषी मानसिकता को राह प्रशस्त करते रहेंगे।

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