मुख्यपृष्ठस्तंभलिटरेचर प्वाइंट : लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना!

लिटरेचर प्वाइंट : लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना!

रासबिहारी पांडेय

गत बुधवार को अमीन सायानी नहीं रहे। ‘आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह’ का संबोधन बहुतों के सम्मान में हुआ करता है, मगर अमीन सायानी इस संबोधन के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। ‘बिनाका गीतमाला’ प्रस्तुत करते हुए जो अपार लोकप्रियता उन्हें मिली, उसे कोई पार नहीं कर सका। सीधी सरल हिंदी वाले अपने खास लहजे में बात करनेवाले अमीन सायानी सुदूर ग्रामीण अंचलों तक में लोकप्रिय थे। टीवी, सिनेमा के अलावा विज्ञापन फिल्मों में भी उनकी आवाज का भरपूर इस्तेमाल हुआ। आज भी डबिंग कलाकार या कॉमेडियन उनकी नकल करते हुए पाए जाते हैं। मैंने सन् २००१ में एक समाचार पत्र के लिए उनसे लंबी बातचीत की थी।
तब वे ग्रांट रोड में केम्स कॉर्नर के पास रहा करते थे। जब मैंने उनसे पूछा कि आज की फिल्मों के संगीत का स्तर गिरता जा रहा है तो उनका कहना था कि हमारे जमाने में यानी सन् ४० से ७५ तक का एक ऐसा दौर रहा कि एक से एक प्रतिभाएं आईं और इतना अनूठा काम किया, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। धीरे-धीरे फिल्मों की मधुरता की जगह धूम-धड़ाका, मारपीट एवं अंग प्रदर्शन हावी होने लगा। माध्यम की जरूरतें बदलने लगीं। आज की पीढ़ी एक जोशीला लय चाहती है, उसे फास्ट पॉप म्यूजिक रिदम चाहिए… तो यह कहना कि पहले का संगीत अच्छा था, अब कुछ अच्छा नहीं रहा हर दृष्टि से ठीक नहीं होगा।
जब मैंने उनसे प्रति प्रश्न किया कि क्या एक खास वर्ग की अभिरुचि को ही कला का मापदंड मान लेना उचित होगा तो उन्होंने थोड़ा ठहर कर कहा कि अगर हमने गणतंत्र अपनाया है, डेमोक्रेसी के नियमों में बह चुके हैं तो जो ज्यादा लोग अच्छा और सही समझते हैं उन लोगों के लिए तो वह अच्छा हो ही जाता है। कई बहुत अच्छी और कलात्मक फिल्में आती हैं, पर उसे दर्शक नहीं मिलते। सिनेमा देखनेवाला वर्ग केवल बुद्धिजीवियों का नहीं, ऐसे में फिल्मकार कॉमन चीजें देना चाहते हैं, जिससे उनका व्यावसायिक लाभ भी हो और लोगों का मनोरंजन भी हो जाए। जो हमें जीवन से नहीं मिलता, हम मनोरंजन से पाना चाहते हैं। दुनिया भर में मास्टरपीस मानी जानेवाली ‘पाथेर पांचाली’ अगर आम तबके को दिखाई जाए तो उसे बोरियत होगी। जिसमें सोचने-समझने और उलझन की जगह न हो, दर्शकों का झुकाव उधर ही होता है। फिल्मों में सेक्स के मुद्दे पर भी उन्होंने खुलकर बातचीत की। उनका मानना था कि सेक्स विज्ञान को लेकर अच्छी फिल्म बनाने वाले निर्माताओं की बेहद कमी है।
उनकी सोच से सहमत हुआ जा सकता है। शरीर विज्ञान से हम बिल्कुल मुंह मोड़ लें, यह ठीक नहीं है। शायद इसी का परिणाम है कि एड्स के मामले में भारत दुनिया भर में नंबर दो पर है। हम अपने बारे में तो सोचते हैं लेकिन देश और समाज के बारे में सोचना भूल जाते हैं। अगर व्यापक सोच लेकर सकारात्मक दृष्टि से स्त्री-पुरुष संबंधों की व्याख्या सिनेमा के परदे पर आए तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। ‘ओ माई गॉड-२’ में पंकज त्रिपाठी ने उसकी अच्छी नजीर पेश की है।
(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)

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