महाराष्ट्र को इस बात पर गर्व है कि महाराष्ट्र के सुपुत्र न्यायमूर्ति भूषण गवई को देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया है। होना भी चाहिए, लेकिन फडणवीस और उनकी मतलबी सरकार के चेहरे से ऐसा नहीं लगता कि गवई की नियुक्ति से वे खुश या गौरवान्वित हैं। मुख्य न्यायाधीश गवई के महाराष्ट्र के पहले दौरे के दौरान उनके स्वागत का साधारण राजशिष्टाचार भी नहीं निभाया गया। फडणवीस सरकार का साधारण प्रोटोकॉल सिपाही भी मुख्य न्यायाधीश को गुलदस्ता भेंट करने के लिए मौजूद नहीं था और मुख्य न्यायाधीश गवई ने इस पर खेद व्यक्त किया। मुख्य न्यायाधीश ने संयमित शब्दों में अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा, ‘हमें शिष्टाचार की बिल्कुल भी उत्सुकता नहीं है। हम अमरावती और नागपुर में ‘पायलट एस्कॉर्ट्स’ नहीं ले जाते हैं, लेकिन यह लोकतंत्र के एक स्तंभ के रूप में न्यायपालिका का सम्मान करने का मामला है।’ यह उनका बड़प्पन है, लेकिन जो हुआ वह महाराष्ट्र की भावना के अनुरूप नहीं है, इस बारे में क्या कहा जाए? यह राजशिष्टाचार का हिस्सा है कि मुख्य न्यायाधीश का स्वागत राज्य के मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक और शहर के पुलिस आयुक्त द्वारा किया जाए, लेकिन मुख्य न्यायाधीश गवई के मामले में इसका पालन नहीं किया गया। यदि यह जानबूझकर किया गया था तो इस सरकार को माफी नहीं है और यदि प्रशासन से गलती हुई है तो सरकार ने संबंधित लोगों के खिलाफ क्या कार्रवाई की? मुख्य न्यायाधीश मुंबई पहुंचे, जहां से वे सीधे चैत्यभूमि में संविधान निर्माता महामानव डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने गए, लेकिन वहां एक भी सरकारी अधिकारी मौजूद नहीं था! मुख्य न्यायाधीश गवई मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। फिर वे उच्च योग्यता और कड़ी मेहनत के आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने समस्त दलित और शोषित समाज को पढ़ो और संघर्ष करो का जो मार्ग दिखाया था, न्यायाधीश गवई भी उसी रास्ते पर चलते हुए अनेक बाधाओं के बीच मार्ग बनाते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंचे। किसी की
मेहरबानी या सिफारिश से
वे उस पद पर नहीं बैठे हैं। अमरावती के सरकारी स्कूल में पढ़नेवाला यह युवक अपनी योग्यता के आधार पर मुख्य न्यायाधीश बनता है और महाराष्ट्र की धरती का नाम रोशन करता है यह गर्व की बात है। उनका व्यक्तित्व स्वतंत्र विचारों का है और उनकी निष्ठा भारतीय संविधान के प्रति है, क्या गवई के इस स्पष्ट बयान से किसी को ठेस पहुंची है? अगर किसी को इस बात से परेशानी है कि गवई बौद्ध समाज के पहले व्यक्ति हैं, जो देश की सर्वोच्च न्यायिक पीठ पर विराजमान हैं तो वे शाहू, फुले और आंबेडकर की विचारधारा के हत्यारे हैं। न्यायाधीश गवई के पूर्व जब एक सज्जन न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया, तो उस वक्त महाराष्ट्र के सुपुत्र के मुख्य न्यायाधीश बनने पर उनका सम्मान और स्वागत समारोह राजशिष्टाचार के साथ आयोजित किए गए। उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की फौज मौजूद थी। यह सब उस समय शिष्टाचार के अनुरूप नहीं था, क्योंकि महाराष्ट्र के राजनीतिक भ्रष्टाचार का मामला मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के समक्ष चल रहा था, फिर भी उन्हें महाराष्ट्र के सुपुत्र के तौर पर सम्मानित किया गया तो क्या मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई महाराष्ट्र के सुपुत्र नहीं हैं? चंद्रचूड़ और गवई के बीच अंतर करना पूरी तरह गलत है। भले ही ये फडणवीस की नीतियों के अनुकूल हों, लेकिन यह महाराष्ट्र की परंपराओं को कलंकित करनेवाला है। गवई ने कहा है, ‘मैं केवल संविधान का सम्मान करता हूं। कोई भी संविधान से ऊपर नहीं है। संसद वगैरह बाद में।’ उनका दूसरा बयान महत्वपूर्ण है, ‘मैं सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद स्वीकार नहीं करूंगा। मैं अपने गांव लौट जाऊंगा और अपना जीवन देश और गरीबों की सेवा में बिताऊंगा।’ यह बयान आज के व्यापारी, राजनीतिक व्यवस्था को धक्का देनेवाला है। ऐसे न्यायाधीश मौजूदा सरकार के ढांचे में फिट नहीं बैठते। इसलिए सरकार ने यह सोच लिया होगा कि उनके सम्मान की आवश्यकता नहीं है। महाराष्ट्र में इस समय दलबदल कर भारतीय जनता पार्टी और शिंदे गुट में गए चूहे, बिल्ली और बकरियों
तक को ‘प्रोटोकॉल’
प्राप्त हुआ है। उनके आगे-पीछे सरकारी सुरक्षा वाहन हैं। सरकार को बाहर से अप्रत्यक्ष तौर पर मदद करने वालों पर भी प्रोटोकॉल की मेहरबानी है। अयोध्या से भी अधिक सुरक्षा बल इस प्रोटोकॉल कार्य में लगे हुए हैं। जिस महाराष्ट्र में चूहे, बिल्ली, बकरी और यहां तक कि उनके बच्चों के लिए भी प्रोटोकॉल सुरक्षा व्यवस्था है, वहां देश के मुख्य न्यायाधीश, जो महाराष्ट्र के सुपुत्र हैं, के लिए कोई प्रोटोकॉल नहीं है और खुद मुख्य न्यायाधीश को सार्वजनिक रूप से यह अफसोस जताना पड़ रहा है, ये बहुत गंभीर है। जब केंद्रीय राज्यमंत्री मुंबई हवाई अड्डे पर उतरते हैं तो उनके सरकारी वाहनों का बेड़ा आम लोगों को आश्चर्यचकित कर देता है। पहलगाम हमले में मारे गए पर्यटकों के पास कोई सुरक्षा नहीं थी, पुलवामा हमले में शहीद हुए जवान भी बिना सुरक्षा प्रोटोकॉल के इहलोक गए, लेकिन जब देश के गृह मंत्री श्रीनगर में उतरे तो उनके पास ७० सुरक्षा वाहनों का प्रोटोकॉल था और आगे का कार्य उन्होंने रेड कार्पेट पर ही किया। पूरे देश ने इसे देखा और कल महाराष्ट्र के सुपुत्र चीफ जस्टिस गवई का खेद भी सुना। मोदी और फडणवीस सरकारें हर तरह से भेदभाव करती हैं। उससे सामाजिक समानता का संदेश देने वाली कलाकृतियां भी नहीं बचीं। ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरल स्टोरी’ और ‘छावा’ जैसी फिल्मों का प्रचार करनेवाले और उसके लिए खास शो आयोजित करनेवाले प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री फडणवीस महात्मा फुले के जीवन संघर्ष पर आधारित फिल्म ‘फुले’ से मुंह मोड़ते हैं इसलिए जनता को इस बात से आश्चर्य नहीं होगा कि सरकार ने मुख्य न्यायाधीश गवई से मुंह मोड़ लिया है। हमें उनकी मानसिकता और उनकी योग्यता को समझना होगा। भूषण गवई जैसे साधारण परिवार का एक मराठी युवक देश के मुख्य न्यायाधीश पद पर विराजमान हुआ यह डॉ. आंबेडकर की विचारधारा की जीत है। भैंसों की बलि देकर वे इस पद तक नहीं पहुंचे हैं। महाराष्ट्र उपलब्धियों की खान है, क्योंकि महाराष्ट्र ने उपलब्धियों को महिमामंडित करने की परंपरा को हाल तक संरक्षित रखा था। मौजूदा शासन में वह परंपरा टूट गई। न्यायमूर्ति भूषण गवई हमें माफ कीजिए। महाराष्ट्र के लिए बलिदान देनेवाले अठरापगड़ समाज के शहीद हमसे क्षमा मांग रहे हैं!