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बेबाक : पहले राम तत्व और महत्व को समझो, फिर करो राम राज्य के दावे!

पूर्वार्ध

अनिल तिवारी मुंबई

जन अपेक्षाएं थीं कि अयोध्या के जन्मभूमि मंदिर में प्रभु श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा के बाद देश का राजनैतिक माहौल बदलेगा, समाज में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा। राम राज्य का मार्ग प्रशस्त होगा। सत्तापक्ष भी कुछ ऐसा ही दावा कर रहा था। राम राज्य की पुन:स्थापना की गवाही दे रहा था। परंतु यथार्थ में ऐसा कुछ भी होता हुआ नजर नहीं आया। अपितु, चीजें नकारात्मक से नकारात्मक होती चली गईं और अब भी वह क्रम जारी है। आज देश द्वेष और द्वंद्व के आवरण में ढंक चुका है और यह सभी कुछ राम राज्य की प्रति स्थापना के नाम पर हुआ है। क्या सनातनियों की नजर में यही राम राज्य की परिकल्पना है या राम राज्य की प्रतिष्ठा तब है, जब प्रभु राम के कृतित्व और चरित्र को खुद में आत्मसात किया जाए? वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक वातावरण से यह प्रश्न मन में उठना नैसर्गिक है। राष्ट्र के ताजा हालातों से प्रजा में ऐसी चिंताएं व शंकाएं उत्पन्न होना स्वाभाविक है। सत्ता उत्साहियों द्वारा राम राज्य की संज्ञा के बेजा उपयोग से जन मानस के मन में संदेह पैदा होना सहज है। इस लेख खंड की आगामी कड़ियों में प्रस्तुत है उसी का सारगर्भित विश्लेषण;

२२ जनवरी, २०२४ को प्रभु श्री राम का कलियुगी वनवास खत्म हो गया और उनके पुन: धाम लौटते ही राम युग प्रारंभ हो गया, देश के राजनीतिक व सामाजिक गलियारों में ऐसे दावे शुरू हो चुके हैं। भौतिक तौर पर ऐसे दावे किए भी जा सकते हैं, परंतु क्या आत्मिक और आध्यात्मिक आधार पर ये कथन कई विरोधाभास खड़े नहीं करते? इनमें सबसे अहम तो यही कि जहां केवल ‘सत्ता’ ही कर्ता हो, शेष सभी द्रष्टा मात्र होकर दर्शन करने वाले हों, तो उसे राम राज्य की प्रतिष्ठा कैसे कहा जा सकता है? गणतंत्र में एकाधिकार की निरकुंशवादी विस्तार नीति को राम राज्य कैसे माना जा सकता है? उस पर जहां स्वयं श्री राम तक को मात्र द्रष्टा बना दिया गया हो, कलियुगी राजनीतिक ‘प्रतिष्ठा’ का केवल मूकदर्शक, वह व्यवस्था राम राज्य की परिकल्पना किस तरह हो सकती है? निश्चित रूप से यह राम राज्य की परछाई से भी कोसों दूर है। जहां आडंबर और अहंकार का वास हो वो राम राज्य नहीं कहला सकता। अत: यहां जरूरी हो जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम रघुकुल श्रेष्ठ श्री राम और उनके सर्वसमावेशक, सर्वहिताय व सर्वसुखाय राम राज्य की परिभाषा को पुन: उद्धरित किया जाए। उसे सरलता से समझने और समझाने की आवश्यकता पर गौर किया जाए।
अर्थात, राम राज्य की परिभाषा और २०२४ के हवाई दावों पर चिंतन और मंथन से पहले प्रमुखता से यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर सनातन धर्म में ‘राम’ क्या हैं? और क्या है उनका शाब्दिक, धार्मिक व तार्किक अर्थ एवं आत्मिक, आध्यात्मिक, सैद्धांतिक और वैचारिक महत्व? यथार्थत: सनातनधर्मी हिंदुओं के लिए राम केवल एक आत्मीय अनुभूति नहीं हैं, वे केवल एक आध्यात्मिक विचार भी नहीं हैं। अपितु, वे एक सनातन संस्कार हैं, पुरातन परंपरा हैं, जीवन का सार्थक सिद्धांत हैं, आचरण की एक शैली हैं। वे हिंदुओं के लिए त्याग की सबसे बड़ी मूरत हैं। वे अविनाशी तो हैं ही। शाश्वत भी हैं। नश्वर भी हैं। अजर-अमर हैं। सर्वज्ञ हैं। आडंबर से परे, भोग-विलास से अछूते, ब्रह्म और ब्रह्मांड भी हैं। वे परमेश्वर हैं, पराक्रमी हैं पर साथ ही वे मर्यादाओं के अधीन भी हैं। वे पितृ धर्म की प्रतिष्ठा हैं तो भार्या और भ्राता धर्म के पूरक भी हैं। वे सभ्यता, दिव्यता, सत्य, विश्वास, मर्यादा, आदर्श, आदर, सौम्यता, समर्पण, सम्मान और एकरसता के प्रतीक भी हैं। वे योग और योगी भी हैं। मोह-माया से परे भी हैं। वे केवल ईश्वर नहीं, मानव भी हैं, अवतार भी हैं, राजा हैं तो भिक्षु भी हैं। वे योद्धा हैं पर क्रोधविहीन भी हैं। पराक्रमी हैं पर अहंकारमुक्त भी हैं। वे न्याय हैं, अन्याय विरोधी हैं। वे सादगी हैं और स्वांगशून्य भी हैं। अर्थात, उनका केवल एक अकेला शाब्दिक अर्थ नहीं है, अपितु, उनके कई तार्किक निहितार्थ भी हैं। अनंत धार्मिक अभिप्राय भी हैं। सूक्ष्मार्थ यह कि जिनके प्राण हर प्राणी में हों, जिनकी प्रतिष्ठा हर वाणी में हो। वे ही श्री राम हैं। राम वे हैं जो अधर्म के विरुद्ध हों, अन्याय के विरोधी हों। फिर वह अधर्म और अन्याय धर्म में हो या सत्ता में। वो उससे हमेशा युद्ध करें। बाली का वध करें और धर्म की सत्ता के लिए सुग्रीव का राज्याभिषेक भी करें। अर्थात, वे जो द्वेष और क्लेश का नाश करें। पंचवटी की घास-फूस वाली कुटिया स्वीकार कर लें, पर चकाचौंध वाली सत्ता न स्वीकारें। वे कांटों के पथ पर चल लें, पर हीरों का ताज स्वीकार न करें। मिथ्या का सिंहासन त्यागें, सत्य का साथ दें। स्वार्थ का मोह छो़ड़ें, स्वेच्छा का वनवास स्वीकारें। वस्तुत: राम वे हैं जो घने जंगल में भी सहज भाव से जी लें, कटीली राहों पर भी सरलता से चल लें और कीट-पतंगों संग भी जीवन व्यतीत कर लें। वे सत्ता के अहंकार के साक्षी न बनें। अन्याय के आवरण में ढंकी राजनीति उन्हें कतई स्वीकार न हो। दिन-रात अपने नाम का राजनीतिक सौदा होते भी न देखें। जनमानस के मन में ऐसे ही प्रभु श्री राम की आत्मिक छवि है। उनके लिए राम का नाम ही धर्म है। राम के नाम में ही धर्म है। वे जानते हैं, राम के इस सत्य और तथ्य स्ो विमुख होकर उनकी भक्ति नहीं की जा सकती। यह उन्हें सर्वदा अस्वीकार्य होगी। यही तो उनकी सैद्धांतिक कीर्ति है और यही आशय उनकी आध्यात्मिक भक्ति भी। जो मंदिरों में नहीं, करोड़ों सनातनी हिंदुओं के आचरण में दर्शन देती है। उनकी सहिष्णुता में प्रतिबिंबित होती है।
इसीलिए सहिष्णु हिंदुओं के लिए श्री राम की मूरत केवल निमित्त मात्र ही है। राम तो उनके रोम रोम में हैं। राम तो उनके हर तत्व में हैं। उनके लिए मानवीय परंपराओं, पराक्रम, परोपकार और पावनता का प्रतीक हैं राम। अच्छाइयों को आत्मसात और बुराइयों का त्याग करने का नाम हैं राम। प्रभु राम की सीख ही यही है कि पक्ष-विपक्ष कहीं भी अच्छाई हो तो उसे ग्रहण करो और बुराई हो तो उसका धर्म मार्ग से निदान करो। केवल विपक्ष की बुराइयों और पक्ष की अच्छाइयों पर आंख मूंदकर लक्ष्य केंद्रित करना राम राज्य का धर्म तत्व नहीं है। न ही राजा की यह नीति होनी चाहिए कि वह धर्म को अधर्म के पक्ष में और अधर्म को धर्म के पक्ष में खड़ा करे। जो भ्रष्ट है तो वह हर हाल में भ्रष्ट ही है। चाहे वह राजा के समक्ष नतमस्तक ही क्यों न हो! वह सजा का पात्र है और जो सदाचारी है फिर वह विपक्ष में ही क्यों न हो, सम्मान का पात्र है। इसलिए जब देश में राजनीतिक रामोत्सव का आयोजन हो रहा हो, राम राज्य का दावा हो रहा हो तो इन मुद्दों पर भी मंथन होना आवश्यक हो जाता है और आवश्यक हो जाता है राम राज्य की प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त सनातनी बनना। ऐसा सनातनी जिसने जीवन की हर परिस्थिति में राजधर्म, पितृ धर्म, भार्या धर्म, बंधु धर्म और राष्ट्र धर्म का पालन किया हो। जो अपने-परायों के प्रति समान भाव रखता हो और सभ्यता-दिव्यता, सत्यता और विश्वास का अनुयाई हो। जो मर्यादाओं का मान रख समर्पण से काम करता हो और जिसकी नजर में प्रजा ही ईश्वर हो। जो आडंबर और अहंकार से मुक्त हो, जो सरलता, सौम्यता और साहस का प्रतीक हो। जो असत्य से घृणा करता हो और जो अपने वचन का पक्का हो। जो ‘राज’ नीति का पालन करे और वैमनस्य से काम न ले। क्योंकि राम राज्य की प्रतिष्ठा स्वार्थी अवगुणों के साथ नहीं हो सकती। राम राज्य में विनम्रता ही चलती है, विद्वेष नहीं चलता। सहजता ही चलती है, षड्यंत्र नहीं चलते। छल भगवान को दुखी करता है। उन्होंने तो राक्षसों का भी तब तक वध नहीं किया, जब तक वे विधर्मी नहीं हुए। धर्म के मार्ग में आड़े नहीं आए। यहां धर्म से तात्पर्य चोटी और पोथी का धर्म नहीं, अपितु मानवता का धर्म है। सनातन धर्मियों के लिए राम राज्य से सामाजिक उत्तरदायित्व का भान उसी मानवीय धर्म से है। अर्थात, जो राम के इन मानवीय सिद्धांतों पर मरा, वो राम बना। सहनशीलता और संयमशीलता के आभूषण धारण कर सका। उसकी यशोकीर्ति सद्भाव से संभव हुई। वो दुर्भाव से दूर रहा। यही तो राम का वैचारिक अर्थ है। जिसने जाना, उसे राम मिले, नाम बेचने वालों के हिस्से में मरा ही आया।
इसलिए जब हम राम राज्य की बात करते हैं तो सत्ता से ऐसे समग्र आचरण की अपेक्षा आवश्यक हो जाती है। ‘सत्ता’ का सदाचारी आचरण आवश्यक हो जाता है। सत्ता में अविश्वास, अराजकता, आवेश, असुरक्षा-आडंबर और अनीति नहीं भाती। द्वेष और विद्वेष नहीं चलता। वैमनस्य नहीं चलता। आलोचकों के लिए कुटिल नीति नहीं चलती। निंदक को भी न्याय मिलता है। असहाय की प्रताड़ना नहीं होती। वैचारिक विरोधियों को कुचला नहीं जाता। वहां जाति की राजनीति नहीं चलती, फूट का तंत्र नहीं होता, प्रजा में भेदभाव नहीं होता। प्रजा से लूट भी नहीं चलती। भय और भ्रम नहीं होता। पाखंड और फरेब भी नहीं चलता। सत्यनिष्ठा और त्याग चलता है। सेवा का सतत भाव चलता है। वहां गुरु को शिष्य से, चाचा को भतीजे से और भाई को भाई से, पिता को पुत्री से लड़ाने की कु-नीति नहीं चलती। सनातन-वैदिक धर्म में राम राज्य की यही वास्तविक अवधारणा है जिसके विरुद्ध आचरण अमान्य है। क्या सनातन धर्मियों को राम राज्य की प्रतिष्ठा के लिए ऐसे राम तत्व नहीं चाहिए? कहां हैं राम के यह सिद्धांत उनके आदर्श और मर्यादाएं?
अत: जब तक देश में श्री राम के आदर्शों की स्थापना नहीं होती, उनकी मर्यादाओं की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती, तब तक राष्ट्र में राम राज्य का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। ऐसे महिमामंडन से केवल राज भक्ति की पराकाष्ठा हो सकती है और कुछ नहीं। और हां, अयोध्या में एक भव्य भवन बनाकर श्री राम को साधा नहीं जा सकता। वे तो स्वयं ही पिता दशरथ का दिव्य-भव्य भवन एक क्षण में त्याग कर अयोध्या से चल पड़े थे। वे राजभवन के कब भूखे थे, वे तो सदैव भाव के भूखे रहे हैं। कौन किस भाव से ईश्वर का नाम जपता हैं, उनका स्मरण करता है, यह उनके लिए महत्वपूर्ण है। उनके लिए महत्वपूर्ण आलीशान मंदिर नहीं, स्वच्छ मन मंदिर है। यदि त्रेता की यह सीख वर्तमान में आत्मसात हो जाती तो निश्चित ही राम राज्य की परिकल्पना फलीभूत कहलाती। परंतु ऐसा हुआ नहीं। तब आज की सत्ता को राम राज्य की शुरुआत कैसे कहा जाए? क्यों राम राज्य के नाम पर तुच्छ राजनीति को स्वीकार किया जाए? क्या राम राज्य राम सी मर्यादाओं और आदर्शों की प्रति मूर्ति नहीं होनी चाहिए? क्या मर्यादा और आदर्श श्री राम के संपूर्ण जीवन की सार-संपदा नहीं हैं? अहंकार का नाश ही उनके जीवन का निचोड़ है। राम ने रावण को कहां मारा था, बल्कि उसके अहंकार को ही तो मारा था। यदि अहंकार जिंदा है तो मंदिर कितना ही भव्य-दिव्य क्यों न हो, उसका महिमामंडन निरर्थक ही हुआ और राम राज्य के दावे भी!
(क्रमश:)

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