विजय कपूर
बुनियादी शर्त
‘मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं, लेकिन आपको जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है उसे कायम रखने के लिए मैं अपने खून की अंतिम बूंद तक संघर्ष करता रहूंगा।’ यह दार्शनिक बर्टेंड रसल के शब्द हैं, जो कह रहे हैं कि लोकतंत्र व प्रगति के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी शर्त है। विचार शब्दों के माध्यम से आसानी से व्यक्त किए जा सकते हैं, लेकिन कभी-कभार कला के जरिए अधिक प्रभावी अंदाज से व्यक्त किए जाते हैं, जैसा कि इंग्लैंड स्थित स्ट्रीट आर्टिस्ट बैंकसी अक्सर किया करते हैं। भारत का संविधान उचित पाबंदियों के साथ सभी नागरिकों को अपने विचार व राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार देता है। इसमें न सिर्फ मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेख, चित्र, चलचित्र, बैनर आदि के माध्यम से भाषण भी शामिल हैं। बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल है। इस अधिकार में मुख्य शब्द ‘उचित’ है। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि हाल ही में दो हाई कोर्ट्स के जो अवलोकन आए हैं, वे इस शब्द को सीमित करते हैं।
पहली नजर में सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर शर्मिष्ठा पनोली पर कोलकाता हाई कोर्ट की टिप्पणी और कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा एक्टर कमल हासन को फटकारना निर्विवाद प्रतीत होते हैं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद पनोली ने एक समुदाय विशेष के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की और पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया, जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए था। बाद में उन्होंने अपनी पोस्ट्स को डिलीट कर दिया। कोलकाता हाई कोर्ट ने उनसे कहा, ‘देखो, हमें बोलने की आजादी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप दूसरों की भावनाओं को आहत करें।’ कमल हासन ने दावा किया था कि कन्नड़ तमिल से निकली हुई उसकी एक शाखा है यानी कन्नड़ अलग व स्वतंत्र भाषा नहीं है। इस पर कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा, ‘आप कमल हासन या जो कोई भी हों, लेकिन आप अवाम की भावनाओं को आहत नहीं कर सकते।’
दूसरे शब्दों में दोनों अदालतों ने कहा है कि आप तोल-मोलकर बोलें और इस बात का ख्याल रखें कि आपके शब्दों से अन्यों को तकलीफ न पहुंचे। अगर यह नजीर बन जाती है तो इस देश में सभी बातचीत, चर्चा व बहस का आनंदमय होना आवश्यक हो जाएगा। वक्ताओं, लेखकों व कलाकारों को सावधान व सतर्क रहना होगा कि वह कहीं श्रोताओं को नाराज न कर दें। फिर भी भावनाओं को आहत करनेवाली तलवार उनके सिरों पर लटकी रहेगी। खामोश रहना है सुरक्षा की गारंटी बन जाएगी। यह सही है कि आपकी आजादी वहां खत्म हो जाती है, जहां मेरी नाक शुरू होती है, लेकिन बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत मुश्किल से हासिल किया गया आधुनिक अधिकार है।
संयम का परिचय
इतालवी दार्शनिक जियोदार्नो ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया था। इस विचार का प्रसार करने के लिए कि ब्रह्मांड अनंत है, क्योंकि इससे चर्च आहत हो गया था। गैलीलियो को अपने जीवन के अंतिम वर्ष अपने ही घर में नजरबंदी में गुजारने पड़े थे, क्योंकि उनका नजरिया था कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर काटती है। एक व्यक्ति का विश्वास दूसरे व्यक्ति के लिए ईशनिंदा हो सकती है। यही वजह है कि दूसरों की ‘भावनाओं’, रायों व एहसासों को अच्छे या खराब वक्तव्य का पैमाना बनाना मुक्त अभिव्यक्ति को नष्ट करने का सबसे आसान व ठोस तरीका है।
भावनाओं को आहत करना फिसलन भरी ढलान है, जिसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के किसी भी प्रयास पर चिंताजनक प्रभाव पड़ता है। अगर संविधान का अनुच्छेद १९(१) नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सुरक्षित रखता है तो यह तथ्य भी काबिले-गौर है कि अनुच्छेद १९(२) में भावनाओं को आहत करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के उचित व तार्किक कारणों में शामिल नहीं है। भावनाओं को आहत करना इस आधार पर विषयात्मक है कि जो बात एक व्यक्ति के लिए मनोरंजन या सूचना या वैध आस्था है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए बहुत परेशान करने वाली या झूठ या ईशनिंदा हो सकती है। इस प्रकार के विषयात्मक पक्षपात के चलते राज्य और उसके अंगों जैसे पुलिस व अदालत के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित मामलों को तय करना आसान नहीं है। ऐसे में सिर्फ उसी अभिव्यक्ति को कानून के दायरे में लाया जा सकता है, जो जन अव्यवस्था व हिंसा का कारण बनी हो। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जो कानून हैं, वे आवश्यक रूप से राज्य से अपेक्षा रखते हैं कि ऐसे मामलों में संयम का परिचय दिया जाए।
सेंसरशिप यानी अपराध!
साथ ही यह भी जरूरी है कि अदालतें अपने पैâसलों में सुसंगत रहें। देखने में आया है कि दो लगभग एक से ही मामलों में एक ही अदालत ने अलग-अलग नजरिया अपनाया, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने की आशा को कोई विशेष मदद नहीं मिलती है। मसलन, टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी व अमिश देवगन और वेब सीरीज ‘तांडव’ की कास्ट व क्रू के मामले लगभग समान स्थितियों में थे कि उनके विरुद्ध अनेक राज्यों में एफआईआर दर्ज कराई गर्इं थीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पहले वालों को राहत प्रदान कर दी थी और दूसरे को राहत देने से इनकार कर दिया था। ‘तांडव’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संपूर्ण नहीं है और वह दूसरों के अधिकारों को आहत करने की कीमत पर नहीं दिया जा सकता। गौरतलब है कि अतीत में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को यह कहते हुए सुरक्षित रखा है कि अगर किसी चीज से आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो आप स्वयं उससे दूर रहें। इसी शानदार दृष्टिकोण को बरकरार रखने की आवश्यकता है। अगर आपको अर्नब गोस्वामी की उग्र-आक्रामक नौटंकी अच्छी नहीं लगती तो आप न देखें, लेकिन उन्हें देखने दें जो देखना चाहते हैं। हाल ही में सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के मामले में पैâसला देते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने यही नजरिया अपनाया था। अदालत ने कहा था कि शब्दों के प्रभावों का ‘मूल्यांकन उन लोगों के मानकों के आधार पर नहीं किया जा सकता, जिन्हें हमेशा असुरक्षा का बोध रहता है या जो लोग आलोचना को हमेशा अपनी पॉवर या पोजीशन के लिए खतरा महसूस करते हैं’ और ‘अगर बड़ी संख्या में लोग दूसरे के द्वारा व्यक्त विचारों को पसंद नहीं करते तो भी व्यक्ति के विचार व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान करना व उसकी सुरक्षा करना जरूरी है।’
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)