विमल मिश्र
मुंबई
भारतीय उद्योगों के पिता जमशेदजी नुसरवानजी टाटा, जिनकी कल जयंती है, अपने वक्त से आगे दूरदर्शी नेता थे। टाटा घराने का यह संस्थापक भारतीय उद्योगों का पिता कहलाता है। उन्हीं की परंपरा पर चलकर टाटा समूह आज उद्योग-धंधों से भी अधिक अपने जनसेवा के कार्यों के लिए जाना जाता है।
ज मशेदजी नुसरवानजी टाटा अपने वक्त से आगे एक विनम्र, मिलनसार और दूरदर्शी नेता थे, जिन्होंने अपनी व्यावहारिक बुद्धि से देश की स्वतंत्रता से १०० साल पहले ही उसका आगत पढ़ लिया था। जमशेदजी का सबसे सबल पक्ष था मानवीय संसाधनों का उनका प्रबंधन। १८८२ में कायम जे.एन. टाटा इंडोमेंट के शैक्षिक वजीफों पर विदेश पढ़ने गए भारतीय छात्रों ने लौटकर उनकी योजनाओं को पूरा करने में मदद दी। ब्रिटिश काल में जब मिलों में शोषण आम बात थी, उन्होंने अपने कारखानों में कामगारों को प्रशिक्षण, काम के कम घंटों, प्रॉविडेंट फंड, ग्रेच्युटी, निश्चित निवृत्ति वेतन, नि:शुल्क आवास, पुनर्वास, दुर्घटना क्षतिपूर्ति, डॉक्टरी इलाज एवं बच्चों की देखभाल सहित तमाम सुविधाएं दीं।
जमशेदजी ने सितंबर, १८९८ में भारत सरकार को वैज्ञानिक शोध का परास्नातक संस्थान खोलने के लिए अपने चार भूखंडों व चौदह इमारतों के साथ एक बड़ी रकम दान कर दी थी। उन्होंने ही सबसे पहले भारतीयों की उच्च शिक्षा और भारतीय प्रशासनिक सेवा जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के बारे में सोचा, ताकि आने वाले समय में भारत को जरूरतों के अनुरूप प्रशासक मिल सकें। उनके निधन के बाद उनके पुत्रों ने १९०९ में बंगलुरू में उनके विचारों के अनुरूप इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना की, जो देश में उच्च वैज्ञानिक शिक्षा का आधार बना। मुंबई का टाटा वैंâसर हॉस्पिटल भी उन्हीं के देखे सपनों की देन है। उनके अनगिनत ट्रस्ट और संस्थाएं आज भी जनसेवा के कामों में लगी हुई हैं।
भारतीय उद्योगों के पिता
जमशेदजी टाटा का जन्म ३ मार्च, १८३९ को गुजरात के कस्बे नवसारी में पारसी धर्म के पादरी नुसरवानजी एवं जीवेरबाई कावसजी टाटा के घर में हुआ था। चार बहनों के बीच वे एकमात्र भाई थे। जब वे १३ वर्ष के थे, तब उनके पिता ने मुंबई आकर व्यापार आरंभ किया। सन १८५५ में १६ वर्ष की आयु में उनका विवाह १० वर्षीया हीराबाई से हो गया। उनके दो पुत्र सर दोराबजी जमशेदजी एवं रतन जमशेदजी थे। एक पुत्री भी थी, जिसकी अल्पायु में ही मृत्यु हो गई थी।
जमशेदजी ने १८५५ से १८५८ तक मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की, जहां उनका शैक्षिक प्रदर्शन इतना अच्छा था कि कॉलेज ने उनकी फीस ही लौटा दी। अंग्रेजी भाषा से जमशेदजी को विशेष प्रेम था। उनके पसंदीदा लेखक थे चार्ल्स डिकेस, विलियम थाकरे और मार्क ट्वेन।
एलफिंस्टन कॉलेज से ‘ग्रीन स्कॉलर’ (उस वक्त का ग्रेजुएशन) बनने के बाद २० वर्ष की उम्र में पारिवारिक पौरोहित्य के बजाय उन्होंने अपने छोटे से बिजनेस को चुना। १८५८ में २१ हजार रुपए की पूंजी से उन्होंने छोटा-सा जो बिरवा लगाया था, आज वह टाटा घराने के रूप में हजारों शाखों-प्रशाखाओं वाला विशाल वटवृक्ष बन गया है। गहरी जिज्ञासु वृत्ति ने उन्हें दुनिया के जो चक्कर लगवाए, उनमें इंग्लैंड जाकर वहां के कपड़ा उद्योग का संधान शामिल था। १८६९ में चिंचपोकली की एक जर्जर और दिवालिया मिल खरीदकर उन्होंने टाटा साम्राज्य की नींव रखी और उसका जाल देशभर में पैâला दिया। भारत का पहला स्टील प्लांट १९१२ में उन्होंने ही कायम किया था। प्रथम विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद जिस शहर में यह स्टील प्लांट था, आज उसे उन्हीं के नाम पर ‘जमशेदपुर’ पुकारते हैं। भारत में आयरन और स्टील उद्योग कायम करने, पनबिजली पैदा करने और जमशेदपुर को देश का पहला नियोजित शहर बनाने का उनका सपना उनके वारिसों दोराबजी टाटा, सर रतन टाटा, जे. आर. डी. टाटा और रतन एन. टाटा ने पूरा किया।
जमशेदजी टाटा समुदाय के संस्थापक और आधुनिक उद्योग जगत के पथ-प्रदर्शक ही नहीं, ‘भारतीय उद्योगों के पिता’ भी कहलाते हैं। उन्होंने भारतीय उद्योग को न केवल सफलता के शिखर पर पहुंचाया, अपितु देश को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बनाया। अपनी निजी जिंदगी में भी वे हर वक्त कुछ न कुछ नया करते रहते थे। जमशेदजी मोटर गाड़ी मुंबई में चलाने वाले पहले व्यक्ति थे और गाड़ी में रबर के टायर का इस्तेमाल करने वाले पहले भारतीय। देश में मुंबई का आज जो आर्थिक दबदबा है, उसके मूल में सबसे बड़ा हाथ जमशेदजी का ही है। टाटा पहला औद्योगिक समूह है, जिसके मुख्यालय का नाम ही है ‘बॉम्बे हाउस’।
वाह, ताज!
जमशेदजी को जिंदगीभर यह मलाल रहा कि उन्हें एक होटल में प्रवेश से महज ‘भारतीय’ होने की वजह से रोक दिया गया था। यह मलाल उन्होंने दूर किया ‘ताजमहल’ होटेल बनवाकर। भारत के सर्वश्रेष्ठ और विश्व के श्रेष्ठतम लग्जरी होटेल में एक ‘ताजमहल’ का निर्माण जब १९०३ में पूरा हुआ तो यह मुंबई में बिजली का उपयोग करने वाला पहला होटेल था। १९ मई, १९०४ को जमशेदजी का जर्मनी के नौहेम शहर में देहांत हो गया। इंग्लैंड के वोकिंग शहर में पारसी कब्रिस्तान में उन्हें दफनाया गया। उनकी स्मृति सभा में मुंबई के मुख्य न्यायाधीश सर लॉरेंस जेनकिंस जेनफिया ने कहा, ‘उनके पास अपार संपत्ति आई। लेकिन वे अंत तक एक सरल शालीन आदमी की तरह जिए, जिसे न नाम की चाह थी और न जगह की।’ ७ जनवरी, १९६५ को डाक-तार विभाग ने उनकी डाक टिकट निकालकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। कोलाबा में एक जेटी ने मुंबई में उनके नाम को अमर रखा है।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)