जितेंद्र दीक्षित
कहानी मुंबई के सबसे पढ़े- लिखे डॉन की
कभी-कभी किसी के जीवन में घटित हुई कोई एक घटना उसकी जिंदगी की दिशा बदलकर रख देती है। उस शख्स ने अपनी जिंदगी के लिए कोई और योजना बना रखी होती है, लेकिन नियति उसे कही और ले जाकर पटक देती है। ऐसा ही कुछ हुआ अश्विन नाईक के साथ। नाईक ने लंदन से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी और भारत आकर किसी कंपनी में अच्छी तनख्वाह पर नौकरी करके अपना जीवन आगे बढ़ाने का इरादा था, लेकिन किस्मत ने कुछ और ही सोच रखा था। अश्विन का बड़ा भाई अमर उर्फ रावण मुंबई अंडरवर्ल्ड का एक बड़ा नाम था, जिसने कई दुश्मन बना रखे थे। पुलिस तो उसकी दुश्मन थी ही, वह अरुण गवली के गिरोह के भी निशाने पर था। बड़े भाई की इस अदावत ने अश्विन को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। जान बचाने के लिए जान लेना जरूरी बन गया। अश्विन नाईक मजबूरी में अंडरवर्ल्ड का सदस्य बन गए, लेकिन इस दुनिया को वे जल्द ही छोड़ देना चाहते थे। १९९२ में नाईक ने पैâसला किया कि अंडरवर्ल्ड को छोड़कर राजनीति में चले जाएंगे, लेकिन उसी साल उसके साथ ऐसी घटना हुई जिसने उनकी जिंदगी तहस-नहस करके रख दी। उनकी जान तो बच गई, लेकिन अंडरवर्ल्ड से बाहर निकलने का उनका रास्ता भी बंद हो गया।
९० के दशक में मुंबई में पांच गिरोहों की दहशत हुआ करती थी– दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अरुण गवली, अमर नाईक और अबू सलेम इन गिरोहों के मुखिया थे। १९९६ में दिवंगत इंस्पेक्टर विजय सालस्कर ने अमर नाईक को नागपाड़ा इलाके में हुए एक एनकाउंटर में खत्म कर दिया। गिरोह की कमान अश्विन नाईक के हाथों में आ गई। शारीरिक तौर पर लाचार होने के बावजूद नाईक ने गिरोह पर मजबूत नियंत्रण रखा और अपने दुश्मनों को भी नाकों चने चबवाए। १९९२ में एक कोर्ट में पेशी के दौरान अरुण गवली के शूटरों ने अश्विन नाईक के सिर में गोली मार दी थी। वक्त पर इलाज मिल जाने से अश्विन की जान तो बच गई, लेकिन कमर के नीचे से उसे लकवा मार गया और वह जिंदगीभर व्हीलचेयर पर रहने के लिए मजबूर हो गया।
हाल ही में नाईक के घर पर मेरी मुलाकात हुई। बातचीत के दौरान नाईक ने कई बातें बतार्इं, जो अब तक सार्वजनिक नहीं हुर्इं थीं। नाईक शिवसेना की विचारधारा और बालासाहेब के व्यक्तित्व से बड़ा प्रभावित थे। उनके मुताबिक बालासाहेब भी उन्हें पसंद करते थे और कुछेक बार सभाओं में उनके नाम का जिक्र भी किया था। नाईक की पत्नी नीता शिवसेना की नगरसेविका थी। खुद अश्विन नाईक ने भी १९९२ में अंडरवर्ल्ड छोड़कर राजनीति में आने की तैयारी कर ली थी, लेकिन सेशन कोर्ट में हुई गोलीबारी के बाद उनकी जिंदगी की दिशा बदल गई।
जेल में रहने के दौरान अश्विन नाईक ने खूब पढ़ाई की। पढ़ाई किताबों की नहीं बल्कि अपने खिलाफ दर्ज मामलों में पुलिस की ओर से दायर मोटी-मोटी चार्जशीट के पन्नों की। नाईक कानून में इतना निपुण हो गए कि वे अपने वकीलों को निर्देश देते थे कि अदालत में किन बिंदुओं के आधार पर वे जिरह करें। अबसे चंद साल पहले, इक्का-दुक्का छिटपुट मामलों को छोड़कर, नाईक अदालत से सभी गंभीर मामलों से बरी हो गए।
कानून के शिकंजे से बाहर निकलने के बाद अब नाईक एक सामान्य नागरिक की तरह जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं। अब उनका सारा ध्यान रियल इस्टेट के कारोबार पर है। चूंकि नाईक हनुमानजी के भक्त हैं इसलिए अपनी कंपनी का नाम भी उन्हीं पर यानी कि मारुति कंस्ट्रक्शंस रखा है। नाईक के पिता का नाम भी मारुति था। नाईक संतोषी माता के भी भक्त हैं और रोजाना कुछ वक्त घर के पास स्थित माता के मंदिर में पूजा- पाठ के लिए भी निकालते हैं।
जब मैंने उनसे पूछा कि क्या उनके पास नई पीढ़ीr की खातिर कोई संदेश है तो उनकी नसीहत थी– ‘कभी भी अपराध की राह मत पकड़ना, क्योंकि ये वन वे ट्रैफिक है। मैं खुशनसीब हूं कि वापस लौट कर आ सका, लेकिन हर कोई लौट नहीं पाता। इस दुनिया से दूर रहो।’
(लेखक एनडीटीवी के सलाहकार संपादक हैं।)