मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : ट्रंप से चाय पर ये चर्चा है जरूरी

राज की बात : ट्रंप से चाय पर ये चर्चा है जरूरी

द्विजेंद्र तिवारी मुंबई

डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के एक महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका पहुंच रहे हैं। ११ वर्ष में यह उनकी दसवीं अमेरिका यात्रा है। २०२० में कोविड न आया होता तो प्रतिवर्ष अमेरिका जाने का उनका औसत बना रहता। किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा अमेरिका जाने का वर्ल्ड रिकॉर्ड वे बना चुके हैं। फ्रांस की भी उनकी यह आठवीं यात्रा है, जहां वह इस समय हैं।
ट्रंप के तीन तीर
ट्रंप ने इस समय तीन तरह के युद्ध छेड़ रखे हैं, जिनका असर भारत पर पड़ रहा है। अवैध प्रवासी, वर्ल्ड टैरिफ और दान की राशियां रोकना। जिस तरह भारत के नागरिकों को बेड़ियां पहनाकर लाया जा रहा है, उसे सभी भारतवासी देख रहे हैं। ऐसा तो हमारे देश में जघन्य अपराधियों के साथ भी नहीं होता। कोलंबिया जैसे देशों ने दिखा दिया है कि वैâसे अपने देश के नागरिकों की फिक्र की जाती है। मामूली अपराध पर उनके साथ किए जा रहे इस सुलूक पर प्रधानमंत्री को अपना कड़ा विरोध ट्रंप सरकार से जताना चाहिए। अमेरिका को भारत के बाजार की जरूरत है। अगर मोदी जी कठोर बने रहेंगे, तब भी भारत का कुछ नहीं बिगड़ेगा। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय इंदिरा गांधी ने साबित कर दिया था कि कठोर बने रहने पर अमेरिका पीछे हट जाता है।
टैरिफ वॉर
दूसरा है टैरिफ वॉर का मुद्दा। यह दोतरफा है और इसका हल बातचीत से ही किया जा सकता है। विकासशील देशों को अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देश टैरिफ में रियायत देते रहे हैं, जिसे ट्रंप बदलना चाहते हैं। अपने देश में टैक्स या छूट का अधिकार उस देश की सरकार को होता है और उस पर किसी अन्य देश का दखल नहीं हो सकता है। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब व्हाइट हाउस में अपने दोस्त ट्रंप के साथ चाय की चुस्कियां ले रहे होंगे, तब इस पर भी गंभीरता से चर्चा करेंगे। इस पर कठोर होने की नहीं, व्यापारिक समझ और मोलभाव की कला की जरूरत है। अदानी जैसे उद्योगपति मित्रों के साथ मोदी जी ने व्यापार के ये गुर सीख रखे हैं इसलिए इसमें मोदी जी अवश्य सफल होंगे।
दान पर रोक
तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है, यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएड) की मदद रोकना। ट्रंप के प्रशासन में विदेशी सहायता की यह महत्वपूर्ण जीवनरेखा खतरे में पड़ सकती है, जिससे देशभर में महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं के भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ सकती हैं। पिछले चार वर्षों में यानी जो बाइडेन के कार्यकाल में भारत को यूएसएड की सहायता में भारी उछाल आया, खासकर तब जब दुनिया महामारी के दुष्परिणामों से जूझ रही है। कुल मिलाकर, भारत को इस अवधि के दौरान ६५ करोड़ डॉलर (लगभग ५,७०० करोड़ रुपए) की सहायता मिली, जिससे २००१ से यूएसएड से कुल वित्तीय सहायता २.८६ बिलियन (लगभग २५ हजार करोड़ रुपए) हो गई। अकेले वर्ष २०२४ में भारत को १५ करोड़ डॉलर (लगभग १,३१८ करोड़ रुपए) से अधिक प्राप्त हुए, जबकि २०२३ के लिए आवंटन १७ करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। २०२२ में सबसे ज्यादा लगभग २२.८ करोड़ डॉलर दिया गया। अब ट्रंप द्वारा इसमें कटौती से भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर सबसे ज्यादा असर पड़ने की आशंका है, जो परंपरागत रूप से यूएसएड का सबसे बड़ा लाभार्थी रहा है। पिछले चार वर्षों में स्वास्थ्य सेवा ने कुल सहायता का लगभग दो-तिहाई हिस्सा प्राप्त किया, जिसमें अकेले २०२३ में १२ करोड़ डॉलर आवंटित किए गए। यह उस वर्ष भारत को यूएसएड की संपूर्ण सहायता का ६९ प्रतिशत था।
सरकार की पहल जरूरी
यूएसएड भारत में स्वास्थ्य सेवा और पर्यावरण स्थिरता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। एजेंसी की वित्तीय सहायता बंद होने के बाद कुछ क्षेत्रों में काम बंद हो गया, पर इसे सकारात्मक नजरिए से भी देखना जरूरी है, इसमें सरकार को पहल करनी होगी। पिछले कुछ वर्षों में भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन गया है और इसकी बढ़ती आर्थिक ताकत का मतलब है कि यह विदेशी सहायता पर निर्भरता कम कर सकता है। यूएसएड फंडिंग में कमी भारत को विकास के लिए अपने स्वयं के संसाधन जुटाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है, जिससे विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक मजबूत और टिकाऊ घरेलू निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
विदेशी सहायता पर निर्भरता कम करने से सरकार को घरेलू संस्थाओं के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। भारत के बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक क्षेत्र अधिक लचीले हो सकते हैं और अपने स्वयं के समाधान उत्पन्न करने में सक्षम हो सकते हैं। बाहरी वित्तीय सहायता पर निर्भर रहने की बजाय दीर्घकालिक स्थिरता को बढ़ावा दे सकते हैं।
अपने पैरों पर
विदेशी सहायता में कमी के साथ, भारत सरकारी संसाधनों को उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की ओर मोड़ सकता है, जिन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, जैसे कि शिक्षा, पर्यावरण, तकनीकी नवाचार और शहरी विकास। इससे भारत की विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर धन का अधिक सुव्यवस्थित आवंटन हो सकता है। भारत का अधिक आत्मनिर्भर बनने और विदेशी सहायता पर अपनी निर्भरता कम करने का विचार देश की बढ़ती आर्थिक शक्ति का द्योतक है।
इसलिए यूएसएड के मुद्दे पर भी चिंता की जरूरत नहीं है। दान के डॉलर का मोह खत्म होना जरूरी है। भारत किसी की मदद का मोहताज नहीं है, लेकिन जो काम वह एजेंसी कर रही थी, वह काम सरकार और भारत की स्वयंसेवी संस्थाओं को करना होगा। साल का पांच- दस हजार करोड़ रुपए का दान रुकने से भारत पर असर नहीं पड़ता।
बशर्ते, मोदी सरकार ईमानदारी से काम करे। देश के युवा करोड़ों खर्च करके, दुर्गम रास्तों से जान जोखिम में डालकर अमेरिका क्यों जाते हैं? इस प्रश्न पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए और विदेशी दान त्यागकर खुद पर भरोसा रखना चाहिए।

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