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पाठकों की कविताएं : गंगा में बहा देना

गर हाल-एदिल न सुना सको जमाने के बीच
चलते-चलते राहों में पलकें झुका देना तुम
हमसे न मिल सको तो ना मिलो सरे राह
खूशबूदार दुपट्टा हवाओं में लहरा देना तुम
किस्मत में तेरा दीदार नहीं वक्त से पहले
अपना तस्सवुर हवाओं में बिखरा देना तुम
याद है वो पूरा चांद और चांदनी के ख्वाब
दूब का बिछौना ओस की ओढ़नी लेना तुम
राह में मिल जाएं कहीं काटें या पत्थर
अपनी नर्म सांसों से मखमल बना देना तुम
आती-जाती हवाएं कर जाती हैं तेरा जिक्र
इश्क के नगमे हवाओं में लहरा देना तुम
बेवजह संवरने में वक्त जाया न किया करो
बस चेहरे से अपना दुपट्टा हटा देना तुम
होश खो देता कोई तुम्हें देखने के बाद
ऐसे मनचलों को उम्र कैद दे देना तुम
चले आओ सितारों में खो जाए कही हम
रूह को मेरी अपनी रूह में मिला लेना तुम
आशिकी में गर खता हुई हमसे कुछ संजीव
लिखे खतों को मेरे गंगा में बहा देना तुम
– संजीव ठाकुर, रायपुर

खुद को जलाते रहे हम
धुएं के छल्ले उड़ाते रहे हम
अपने गम मिटाने को
एक और सिगरेट जलाते रहे हम
नादानी में खुद को ही जलाते रहे हम
कभी खुद को बहलाने के लिए
कभी दूसरों से अपना वजूद पाने के लिए
एक और सिगरेट जलाते रहे हम
कभी मजे के लिए
कभी दिखावे के लिए
कभी शौक मिटाने के लिए
तो कभी बेवजह ही
एक और सिगरेट जलाते रहे हम
नादानी में खुद को ही जलाते रहे हम
– रंजय कुमार,
मुंबई

अस्तित्व
नहीं चाहिए उसे
कोई उपमा
नदी की तरह
बनाना जानती है वह भी
रास्ते अपने भविष्य के लिए
नदी की तरह
लेकिन
नहीं बनना चाहती वह
नदी की तरह
खोना नहीं चाहती
अस्तित्व अपना
समाकर किसी समंदर में
रखना चाहती है वह
स्वतंत्र अस्तित्व अपना
औरत है वह
नहीं रहना चाहती ‘सुधीर’
नदी की तरह…
– सुधीर केवलिया,
बीकानेर (राज.)

उड़ती सखी
सर्द हवाएं मंद-मंद मुस्काएं
तारों की छांव में अंधेरा गहराए
शीतल हवाएं फिर से लहराएं
हवा में है फूलों की महक
मनमोहक एक टीस जगाए
तब मैं, मैं थी आज मैं कहीं नहीं
मेरे सिवा आज सब है जरूरी
एक मैं ही हूं गैरजरूरी
फिर भी ऐ उड़ती सखी री
तेरा शुक्रिया तूने ये एहसास दिलाया
सोए अरमानों को झकझोर जगाया
एक तू ही है सखी मेरी जब-जब आए
मेरे वजूद का एहसास दिलाए
मेरे सूने जीवन का महत्व बढ़ाए
कभी जो जिए कुछ खुशनुमा पल
वही सब फिर से दोहराने को जी करता है
इधर-उधर की तब की जरूरी बातें वातें करने को जी करता है
जो बातें कब की जेहन से हैं बाहर हुईं
पुन: तू मस्तिष्क में भर जाती है
जिंदगी की शाम जो अब ढलने को है
फिर से जवां कर जाती है
यदि हम जी लें इन्हें तो वो है जिंदगी
वर्ना तो तन्हा कहलाती है जिंदगी
– नैन्सी कौर, नई दिल्ली

जंजीर तोड़ेंगे बच्चे
जाति-पाति अहम की सब जंजीरें तोड़ेंगे बच्चे
म्यानों में बंद पड़ी शमशीरें तोड़ेंगे बच्चे
परिश्रम विद्या उद्यम शक्ति संयम अंतर्दृष्टि से
हाथ में बंद लकीरों की तकदीरें तोड़ेंगे बच्चे
मजदूरों के हाथों में सत्ता का परचम लहराएगा
खून-पसीने में उलझी ताबीरें तोड़ेंगे बच्चे
शीशे की किर्चियां भांति एक प्यासे मारूस्थल के
माथे उकरी गांठदार लकीरें तोड़ेंगे बच्चे
यद्यपि गगन बाज ना आया तारों को खंडित करने से
रवि बनकर अंधेरे से तदबीरें तोड़ेंगे बच्चे
गहरे बहते दरियाओं को फिर वैâसे रोक सकोगे
हालातों के पैरों से जंजीरें तोड़ेंगे बच्चे
नव इतिहास में सृजन का अस्तित्व पैदा करने को
अलमारी में बंद पड़ी तस्वीरें तोड़ेंगे बच्चे
हालातों में ‘बालम’ बुद्धि स्वत्त्व की रक्षक बनेगी
बेइंसाफी में वितरित जागीरें तोड़ेंगे बच्चे
– बलविंदर बालम, गुरदासपुर, पंजाब

ऐ जिंदगी
घुट-घुट के जीते-जीते परेशान हो गया
मुझसे बहार रूठी मैं वीरान हो गया
ऐ जिंदगी बता दे इरादा है क्या तेरा
लगता मैं चंद रोज का मेहमान हो गया
मैंने बड़ी शिद्दत से तेरा साथ दिया है
ऐसा क्या हुआ आज मैं अंजान हो गया
ताउम्र तेरे नाज उठता ही रह गया
तेरे ही लब से आज मैं नादान हो गया
ईमान का तमगा तेरे हिस्से में आ गया
मैं करते-करते थका बेईमान हो गया
वो अपने हद में ही रहा तो जानवर हुआ
जो हद को पार कर गया इंसान हो गया
सच है कि जिस पे अल्ला मेहरबान हो गया
‘शिब्बू’ समझ वो गधा पहलवान हो गया
– शिब्बू गाजीपुरी

आग कहां से लाऊं
इतनी आग कहां से लाऊं
खुद को मैं कितना सुलगाऊं
भीतर-बाहर आग लगी है
कैसे दौड़ूं और बुझाऊं
अंधेरे में तड़प रहा हूं
कैसे बढ़िया दीप जलाऊं
दुनिया में बारूद बिछा है
कैसे बोलूं क्या बतियाऊं
रहबर ही रहजन बन बैठे
कैसे उनका साथ निभाऊं
महालक्ष्मी के बेटों को
कैसे बढ़िया राह दिखाऊं
वे जो संचालक हैं सबके
उनको कैसा पाठ पढ़ाऊं
कैसे अपने प्यारे घर को
आफत से मैं आज बचाऊं
लोकतंत्र की दशा देखकर
कितना रोऊं क्या चिल्लाऊं
अब तो ईश्वर-अल्लाह मालिक
कैसे उनको पास बुलाऊं
ईश्वर-अल्लाह के चेलों को
कितना बोलूं क्या समझाऊं
सत्य बोलना कठिन हो गया
कैसे नया जमाना लाऊं
इतनी आग कहां से लाऊं
खुद को मैं कितना सुलगाऊं
– अन्वेषी

वृक्ष बचाओ
नई-नई व्याधियां फैले हैं
पड़ते मानव रोज बीमार,
वन-उपवन उजड़ने वाला
मानव ही इसका जिम्मेदार!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि

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