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पाठकों की कविताएं : रह जाओगे

यहां भी रह जाओगे
जब तुम चले जाओगे
जैसे रह जाती है
तृणपात पर तुहिन कण
पहली बरसात के बाद
धरती की सोंधी सुगंध
बोल तेरे खुशनुमा
बोलेगी आंखों की चमक
कुछ अधूरा सा सही पर
दर्पण सा रह जाओगे
जब तुम चले जाओगे
यहां भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
सकार में भी तारे
गुंचा के मुरझाने पर भी
महक ढेर सारे
मंदिर की घंटियों में तुम
नदियां भी तुम्हें पुकारे
जीवन के डगर पर
थोड़ा सा रह जाओगे
जब तुम चले जाओगे
यहां भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
दमकती प्रार्थना मन में
बसंत के जाने के बाद भी
कलरव रहता उपवन में
तुम्हारे होने का अहसास
जीवट बनाए पल में
सूरज की किरणों जैसे
कण-कण में बस जाओगे
जब तुम चले जाओगे
यहां भी रह जाओगे
– डॉ. वीरेंद्र प्रसाद, पटना

फगुनाया बसंत

बहुत दिनों पर आज पुन:
मन बसंत फगुनाया है
मधुर-मदिर उन होंठों की छवि
लक्षित मन में पुन: हुई
घने केश बादल की बूंदें
मन आंगन में टपक गईं
भीगा-भीगा, गीला-गीला
मन चंचल बौराया है
वो भारी पलकें वो अधर पटल
वो गाल गुलाबी मन भावन
वो आभा मंडल दीप्ति नवल
वो कमनीय चक्षु परम पावन
मन वर्तुल में घूम-घूम
उर अखिल बहुत पगलाया है
वो घंटाघर, वो जलधि तीर
वे घने कुंज हैं आंखों में
बदली-बदली आज दिशाएं
फिर भी सबकुछ यादों में
स्मृति रथ पर चढ़कर अंतस
पल-पल की बातें लाया है
– राजेश ओझा, गोंडा (उ.प्र.)

आया बसंत

जन्नत का पहनावा पाकर आया फिर बसंत
धरती दुल्हन भांति सजाकर आया फिर बसंत
खुशबू के अलंकार सुशेभित तेज हवाओं में
सरस्वती के उत्सव चार चुफेरे राहों में
वनस्पति के बीच नहाकर आया फिर बसंत
अठखेलियों के मनमौजी दृश्य-दर्शन लेकर
मौसम परिवर्तन वाले मीठे अर्पण लेकर
निर्मलता का संतोष उठाकर आया फिर बसंत
फसलों, फूलों के जोबन का बेपरवाह स्वागत
कुदरत के हस्ताक्षर करके लिख दी है ईबादत
धूप के साथ छांव नचाकर आया फिर बसंत
गन्ने का रस, रेवड़ी, गजक, भुग्गा, मूंगफली
खिचड़ी, साग, दही, मक्खन, घी-मिश्री की डली
चंचलता भीतर शरमाकर आया फिर बसंत
अंबर में की है चित्रकारी डोर पतंगों ने
एक अलौकिक सुंदर तोहफा दिया रंगों ने
रंगों-धर्मों को समझाकर आया फिर बसंत
– बलविंदर ‘बालम’,
गुरदासपुर, पंजाब

बसंत ऋतु

देखो मौसम बहार आई
धरती पर निखार लाई
हर घर में खुशियां छाईं
सरस्वती के भजन-कीर्तन गाई
खेतों में हरियाली छाई
किसानों के मन को भाई
रंग-बिरंगे फूलों की क्यारी मुस्काई
सारा चमन खुशबू से भरपाई
पुलकित हुआ बच्चों का मन
लाल-पीले नीली पतंगें उड़ाई
नीले अंबर पर रंगीनियां छाईं
चहक रहे पक्षी सारे
भंवरे अपने गुंजन गाएं
तितलियां भी कलियों पर मंडराईं
मस्तानी पुरवइया चले
शीतल नदियां छेड़े तार
देखो सुहानी ऋतु छाई
देखो बसंत ऋतु आई
– अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

क्यों है

हमारी आंखों में अश्क नहीं खूं क्यों है
जहां होना था हमको वहां तू क्यों है
हमें ही सताती है भूख हर घड़ी क्यों
हमारे निवालों पर तेरा मुंह क्यों है
पड़ेगा जवाब देना इक दिन तो तुझे
इधर मुसलसल बना हालात यूं क्यों है
जागी रह रही हैं रातें चीखती हुईं
तुम्हारे कानों पे न रेंगती जूं क्यों है
न लिहाफ न अलाव सर्दी इतनी बेदर्दी
अबे सुन तो यार न करता चूं क्यों है
– डॉ. एम.डी. सिंह

मेरी जिंदगी

तुम क्या उठे महफिल से
ढूंढ़ता फिर रहा हूं
न जाने कहां खो गई
मेरी जिंदगी
एक बार तुम पलट के देख लो
इस उम्मीद में
दूर तक तुम्हें जाते देखती रही
मेरी जिंदगी
ये मानने में गुरेज वैâसा
तेरी रहगुजर से जब भी गुजरा हूं
वहीं ठहर के रह गई
मेरी जिंदगी
न कोई उमंग न कोई खुशी
मैं जिंदा हूं
पर कहां है
मेरी जिंदगी
आज पूछते हो तो सुनो
मेरे जीने का राज
जादूगर की जान सी तुझमें बसती है
मेरी जिंदगी
– डॉ. रवींद्र कुमार

वृक्ष बचाओ

विश्व बचाओ
वह हो कोई साधारण आदमी
या कोई पहुंचा हुआ हो संत
खुशियों से भर जाएं सबके
मन जब आती है ऋतु बसंत!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि

शब्द घुमाते लोग

कैसे शब्द घुमाते लोग
नासमझी फैलाते लोग
कच्ची-पक्की बात बोलकर
जाहिल हमें बनाते लोग
और हकीकत के सीने पर
हरदम वङ्का गिराते लोग
बेमानी बेकार बात का
परचम हैं लहराते लोग
अपनी इस प्यारी धरती पर
सारा रोग बुलाते लोग
जो हैं यहां समस्यावादी
उसका मान बढ़ाते लोग
वैचारिक बारूद बिछाकर
मधुर-मधुर मुस्काते लोग
बाहर से शैतान बुलाकर
वतन परस्ती गाते लोग
समझौते पर सब कुछ चलता
हरदम यही बताते लोग
अपने मन में कैंची लेकर
हमसे हाथ मिलाते लोग
शब्दों का जादू कर देते
गोल-गोल बतियाते लोग
वैâसे शब्द घुमाते लोग
नासमझी पैâलाते लोग
– अन्वेषी

एक नया नाम दूं

आ तुझे प्यारा सा एक नया नाम दूं
उजाले दिन की एक खूबसूरत शाम दूं
पैगाम है तेरे नाम न जाने कितने
प्यार में तेरे उन्हें रंगीन अंजाम दूं
हकीकत बड़ी कठोर बेदिल बेरहम है
मौशिकी का तुझे एक हसीन जाम दूं
आज मिले कल शायद जुदा भी होंगे
गमगीनी में तुझे विदाई खुलेआम दूं
मोहब्बत की कई दास्तान अमर हुई
आओ शब्दों से आज नया पैगाम दूं
इश्क तेरे नाम से शुरू वहीं से खत्म
तू ही बता ‘संजीव’ इसे क्या नाम दूं
– संजीव ठाकुर,
रायपुर ,छत्तीसगढ़

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