जहां जमीं पर अंधेरे अधिक होते हैं
वहीं आसमां के तारे अधिक चमकते हैं।
जो पास है मेरे उसे नहीं
जो खो गया उसे संभालना चाहता हूं।
जिस घर को छोड़ आया हूं
उसकी दीवार की ईंटों को
याद कर रहा हूं।
जिस गांव को छोड़ आया हूं
उसके बरगद की छांव की ठंडक से
मैं आज भी सिहर जाता हूं।
जिस मंदिर से भगा दिया गया हूं, आज
उसकी घंटियों की गूंज कानों में सुनता हूं ।
असल में उस मां को छोड़ आया हूं
जिसकी गोद की गर्माहट में पला हूं।
आज भी लगता हे तुझसे बिछड़ कर
किसी दूसरे आदमी की जिंदगी जी रहा हूं।
उस मिट्टी की महक किसी इत्र से कम नहीं
आज भी मेरे रोम-रोम में रची-बसी है।
आज भी जन्म भूमि से बिछड़ने की कसक
रह-रह कर मन को सालती है।
मैं तेरे पास लौट नहीं सकता
उस मिट्टी में अब लोट पोट नहीं सकता।
जी यहां रहा हूं, मरने के बाद
अपने जिस्म की राख तुझमें समेट देना चाहता हूं।
बस घर के एक कमरे से
दूसरे में ही तो आया हूं
आज भी अपने को शरणार्थी मानता हूं।
-बेला विरदी